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________________ पुरुषवाद और पुरुषकार ४९९ किया है। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि उदयन ने न्यायकुसुमांजलि में ईश्वर की सिद्धि में जो तर्क दिए हैं, उनके निरसन करने में जैन दार्शनिक सक्षम रहे हैं। पुरुषकार (पुरुषार्थद्ध ) जैन दर्शन में पुरुषकार (पुरुषार्थ ) का महत्त्व जैनदर्शन श्रमण संस्कृति का प्रतिनिधि दर्शन है। 'श्रमण' शब्द में श्रम या पुरुषार्थ की महत्ता अन्तर्निहित है। मोक्ष की प्राप्ति में पुरुषकार या पुरुषार्थ का महत्त्व पदे पदे स्थापित है। सिद्धसेनसूरि (५वीं शती) के सन्मतितर्क में जिन पाँच कारणों के समवाय का उल्लेख है, उनमें 'पुरिसे' को भी एक कारण प्रतिपादित किया गया है। षष्ठ अध्याय के पूर्वार्द्ध में 'पुरिसे' शब्द से पुरुषवाद अर्थ ग्रहण करके परम पुरुष, ब्रह्म और ईश्वर की कारणता पर विचार किया गया है। प्राचीन वाङ्मय में कहीं पुरुष को ही समस्त जगत् का कारण स्वीकार किया गया है, तो कहीं उसे ब्रह्म का स्वरूप दिया गया है। कहीं ईश्वर को सृष्टि कर्ता के रूप में सिद्ध किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार न ब्रह्मवाद उचित है न पुरुषवाद उचित है और न ही ईश्वरवाद । इसीलिए जैन दार्शनिकों ने इन तीनों का निरसन करके पुरुषकार या पुरुषार्थ को महत्त्व दिया है। महान् जैन दार्शनिक हरिभद्रसूरि ( ७०० - ७७० ई. शती) ने इसीलिए 'पुरिसे' शब्द के स्थान पर 'पुरिस किरियाओ' पद का प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य है कि पुरुष अर्थात् आत्मा या जीव की क्रियाएँ या कार्य ही जैनदर्शन के कारणवाद के संदर्भ में अभीष्ट हैं। उपासकदशांग सूत्र में पुरुष की इन क्रियाओं को उत्थान, कर्म, बल, वीर्य आदि शब्दों से अभिव्यक्त किया गया है। नियतिवाद का खण्डन करते हुए भगवान महावीर ने कुम्भकार शकडाल के समक्ष स्पष्ट रूप से उत्थान, कर्म, बल, वीर्य स्वरूप पुरुषार्थ का महत्त्व स्पष्ट किया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में भी इनका उल्लेख हुआ है। वहाँ इनका स्वरूप बताते हुए कहा गया है- 'उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे, तं चेव जाव अफासे पन्नत्ते १६३ अर्थात् उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम- ये सब जीव के उपयोग विशेष हैं अर्थात् अमूर्त होने से वर्ण, गंध, रस, स्पर्श से रहित हैं। जैनागमों में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम शब्दों का प्रयोग अनेकशः हुआ है। जो सभी जीव के पुरुषार्थ के प्रतीक है । उत्थान आदि का क्रमश: स्वरूप निम्नानुसार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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