SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 552
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषवाद और पुरुषकार ४९१ जगत् का वैचित्र्य ईश्वर की सिद्धि में अनुपपन्न ईश्वर का कर्तृत्व स्वीकार करने पर जगत् का वैचित्र्य सिद्ध नहीं होता। क्योंकि ईश्वर का एक ही रूप है। आत्मा का अद्वैत पक्ष तो अतीव अयुक्ति संगत होने के कारण आश्रयणीय नहीं है। क्योंकि वहाँ न प्रमाण है, न प्रमेय है, न प्रतिपाद्य है, न प्रतिपादक है, न हेतु है न दृष्टान्त है, न उनका आभास ही भेद रूप में ज्ञात होता है। आत्मा से अभिन्न होने के कारण समस्त जगत् का एकत्व हो जाएगा, उसके अभाव में कौन किसके द्वारा प्रतिपादित किया जाएगा। इस प्रकार शास्त्र का प्रणयन भी नहीं हो सकेगा तथा आत्मा के एक होने के कारण उसका कार्य भी उसी एक आकार का होगा। अत: ईश्वर अद्वैत पक्ष में जगत् की विचित्रता का कारण सिद्ध नहीं होता है।१२४ सन्मति तर्क टीका में ईश्वरवाद का निरसन सन्मति तर्क के टीकाकार अभयदेव सूरि (१०वीं शती) ने पुरुषवाद का खण्डन करने के पश्चात् ईश्वरवाद का भी खण्डन किया है। उन्होंने पुरुषवाद के खण्डन में जो तर्क प्रस्तुत किये हैं, वे ईश्वरवाद के खण्डन में भी लाग होते हैं।२५ किन्तु ईश्वरवाद के खण्डन में कुछ नये तर्क भी प्रस्तुत किये हैं, जो इस प्रकार हैं१. यदि ईश्वर दूसरों पर अनुग्रह करने के लिए सृष्टि की रचना करता है तो यह उचित नहीं है, क्योंकि यदि वह अनुग्रह से प्रवृत्त होता है तो उसे समस्त प्राणी समुदाय को एकान्त सुखी निर्मित करना चाहिए।१२६ यदि स्वाभाविक शक्ति से ईश्वर जगत् की रचना करता है तो यह भी संगत नहीं है, क्योंकि स्वाभाविक शक्ति होने पर ईश्वर को जगत् की उत्पत्तिस्थिति-संहार युगपद् कर देने चाहिए।१२७ जैसा कि कहा है- "सर्गस्थित्युपसंहारान् युगपद् व्यक्तशक्तितः। युगपच्च जगत् कुर्यात् नो चेत् सोऽव्यक्तशक्तिकः।। १२८ यदि ईश्वर में शक्ति अभिव्यक्त है तो उसे सर्ग-स्थिति और संहार एक साथ कर देने चाहिए तथा जगत् की रचना भी एक साथ कर देनी चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो समझना चाहिए कि उसकी शक्ति व्यक्त नहीं हुई है। अभिव्यक्त शक्ति वाला ईश्वर क्रम से भी सृष्टि रचना करे तो उचित नहीं है। यदि यह कहा जाय कि भगवान की प्रवृत्ति क्रीड़ा आदि के लिए नहीं होती, किन्तु पृथ्वी आदि महाभूतों की प्रवृत्ति जिस प्रकार अपने कार्यों में स्वभावत: होती है इसी प्रकार ईश्वर की भी होती है तो यह भी मान्यता उचित नहीं है। क्योंकि इस प्रकार तो ईश्वर के व्यापार मात्र से होने वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy