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________________ ४९० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण उन-उन प्रकार की क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं, ईश्वर निमित्त मात्र होता है तो यह भी मन्तव्य युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि पूर्व में उस जीव की अशुभ प्रवृत्ति भी ईश्वर के ही आधीन है।१२१ जैसा कि कहा है अज्ञो जन्तुरनीशः स्यादात्मन: सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा।। यह जीव अपने सुख-दुःख को प्राप्त करने में स्वयं समर्थ नहीं है। ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर वह स्वर्ग या नरक में जाता है। यदि प्राक्तन कार्य में प्रवृत्ति पूर्व प्राक्तन कर्म के कारण होती है तथा उसमें भी प्रवृत्ति प्राक्तनतर कर्म के कारण होती है तो इस प्रकार अनादि हेतु परम्परा होगी और उसी से शुभाशुभ कार्यों में प्रवृत्ति हो जाएगी तब फिर ईश्वर की परिकल्पना से क्या लाभ?१२२ जैसा कि कहा है शस्त्रौषधादिसम्बन्धाच्चैत्रस्य व्रणरोहणे। असंबद्धस्य किं स्थाणोः, कारणत्वं न कल्प्याते? सम्बद्ध को ही कारण माना जाता है, असम्बद्ध को नहीं। शस्त्र के संबंध से चैत्र के व्रण (घाव) होना और औषधि से चैत्र के घाव का भरना, शस्त्र और औषधि की कारणता को सिद्ध करता है। वहाँ असंबद्ध स्थाणु की कारणता को क्यों नहीं स्वीकार किया जाता? अविनाभाव के अभाव में कार्यमात्र से कारण का अनुमान असंगत यह कहा जाता है कि "समस्त शरीर, लोक, इन्द्रिय, करण आदि बुद्धि युक्त कारण पूर्वक उत्पन्न होते हैं, आकार विशेष होने के कारण, देव-कुल आदि के समान।" तो यह भी युक्ति संगत नहीं है। क्योंकि यह हेतु भी ईश्वर की सिद्धि नहीं करता यत: ईश्वर के साथ इस हेतु की व्याप्ति सिद्ध नहीं है। देव, कुल आदि का जो दृष्टान्त दिया गया है वह ईश्वरकर्तृत्व के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है। दूसरी बात यह है कि 'संस्थान' शब्द की प्रवृत्ति मात्र से सभी कार्यों की बुद्धिमत्कारणपूर्वकता सिद्ध नहीं होती है। क्योंकि इसमें अविनाभाव लक्षण रूप व्याप्ति का अभाव है, यदि अविनाभाव के बिना ही संस्थान मात्र के देखने से साध्य की सिद्धि होती है तो ऐसा होने पर अतिप्रसंग होगा। जैसा कि कहा है "कुम्भकार के द्वारा मिट्टी के कार्य रूप में घट के निर्माण की सिद्धि होने से वल्मीक का कर्ता कुम्भकार को नहीं माना जा सकता है।।१२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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