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________________ पुरुषवाद और पुरुषकार ४८९ इस जगत् में चेतन और अचेतन जितने पदार्थ हैं, सबका मूल कारण ईश्वर या आत्मा है। सब पदार्थों का कार्य भी ईश्वर या आत्मा ही है। सभी पदार्थ ईश्वर के द्वारा रचित हैं। सभी ईश्वर से उत्पन्न हैं। सभी ईश्वर से प्रकाशित हैं। सभी पदार्थ ईश्वर के अनुगामी हैं और ईश्वर को ही आधार रूप से आश्रय लेकर स्थित हैं। सूत्रकार ने ईश्वरवाद के मत को अधिक स्पष्ट करते हुए शरीर का फोड़ा, मन का उद्वेग, वल्मीक, वृक्ष, पुष्करिणी, तालाब और बुलबुले के उदाहरणों से ईश्वर की सिद्धि की है। जैसे किसी प्राणी के शरीर में हुआ फोड़ा शरीर से ही उत्पन्न होता है, शरीर में ही बढता है, शरीर का ही अनुगामी बनता है और शरीर का ही आधार लेकर टिकता है, इसी तरह सभी धर्म (पदार्थ) ईश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, ईश्वर से ही वृद्धिंगत होते हैं, ईश्वर के ही अनगामी हैं, ईश्वर का आधार लेकर ही स्थित रहते हैं। १८ वैसे ही अरति, वल्मीक, वृक्ष, पुष्करिणी, तालाब और बुलबुला क्रमशः शरीर, मिट्टी, धरती, पृथ्वी, जल और पानी से ही उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, अनुगमन करते हैं तथा उनमें ही लीन होते हैं, उसी तरह जगत् ईश्वर से उत्पन्न होता है, विकास को प्राप्त होता है और नष्ट हो जाता है। १९ निरसन- सूत्रकृतांग के टीकाकार शीलांकाचार्य ने ईश्वरवाद का युक्तियुक्त निरसन करते हुए कहा है- . ईश्वर की स्वत: प्रेरित और परत: प्रेरित क्रियाएँ कल्पनामात्र सब कुछ ईश्वरकतक है इसको स्वीकार करने पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या यह ईश्वर स्वत: ही दूसरों को उनकी क्रियाओं में प्रवृत्त करता है या दूसरे के द्वारा प्रेरित होकर? इनमें से यदि प्रथम पक्ष को स्वीकार किया जाए तो उचित नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार ईश्वर स्वतः दूसरों को अपनी क्रियाओं में प्रवृत्त करता है उसी प्रकार दूसरे भी स्वत: अपनी क्रियाओं में प्रवृत्त हो जायेंगे। बीच में ईश्वर की परिकल्पना करने से क्या लाभ? दूसरे पक्ष के अनुसार यदि ईश्वर अन्य के द्वारा प्रेरित होकर क्रियाओं का प्रवर्तक होता है तो वह दूसरा भी किसी अन्य से प्रेरित होगा और वह दूसरा भी किसी अन्य से प्रेरित होगा और इस प्रकार नभोमण्डल में अनवस्था दोष रूपी लता फैल जाएगी।१२० पूर्व शुभाशुभ कर्मों की कारणता से ईश्वर की सिद्धि अयुक्तियुक्त यह ईश्वर महापुरुष होने से वीतरागता से युक्त होता हुआ कुछ प्राणियों को नरक योग्य क्रियाओं में कैसे प्रवृत्त करता है तथा कुछ प्राणियों को स्वर्ग-अपवर्ग योग्य क्रियाओं में कैसे प्रवृत्त करता है? यदि वे जीव पूर्व शुभाशुभ कर्मों के उदय से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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