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४८८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
लोक में शब्द का प्रामाण्य देखा जाता है। इसलिए जब तक यह विश्वास न हो जाय कि 'वेद के वक्ता को वेदार्थ का यथार्थ ज्ञान है तब तक वेदों में प्रामाण्य की संभावना नहीं होती है। अत: सर्वज्ञ पुरुष को छोड़कर किसी साधारण मनुष्य में वेदार्थ विषयक ज्ञान का विश्वास नहीं किया जा सकता। वह सर्वज्ञ पुरुष परमेश्वर है। वेदाः सर्वज्ञपुरुषप्रणीता: वेदत्वात् यन्नैवम् तन्नैवम् यथा अस्मदादि वाक्यम्- वेदों (श्रुति) का निर्माण सर्वज्ञपुरुष द्वारा ही हुआ है। क्योंकि जो वेद नहीं है, उसकी रचना सर्वज्ञपुरुष के द्वारा नहीं होती है, जैसे कि अस्मदादि की रचनाएँ। वेदवाक्यानि पौरुषेयाणि वाक्यत्वात् अस्मदादिवाक्यवत्- हम जितने भी वाक्य सुनते या पढते हैं, वे सब पौरुषेय हैं। अतीन्द्रिय वस्तुओं का प्रतिपादन वेदवाक्यों द्वारा होता है। अत: वेद पौरुषेय अवश्य है। इसका
रचयिता पुरुष ईश्वर है। ९. सर्गाहाकालीन परमाणुगतद्वित्वसंख्या अपेक्षाबुद्धिजन्या द्वित्वत्वात्
इन परमाणु, द्वित्व आदि संख्या की उत्पत्ति में ज्ञाता की अपेक्षा से बुद्धि निमित्तकारण है। यह बुद्धि द्रष्टा ईश्वर की ही हो सकती है, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ में अन्य कोई व्यक्ति रहता ही नहीं है।
उपर्युक्त अनुमान वाक्य के अतिरिक्त 'द्यावाभूमी जनयन्देव एकः' (धुलोक व पृथ्वीलोक को उत्पन्न करने वाला ईश्वर) 'विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता' (विश्व का बनाने वाला और संसार का रक्षक) आदि आगम-वाक्यों से भी ईश्वर की सिद्धि होती है। सूत्रकृतांग और उसकी टीका में ईश्वरवाद का निरूपण एवं निरसन
सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में संसार रूप पुष्करिणी के वर्णन के साथ ईश्वरवाद के स्वरूप का निरूपण हुआ है। टीकाकार शीलांकाचार्य (८वीं शती) ने ईश्वरवाद का पक्ष प्रस्तुत करते हुए उसका निरसन भी किया है, जो संक्षेप में यहाँ चर्चित हैईश्वरवाद का पक्ष
इह खलु धम्मा पुरसादिया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिससंभूया। पुरिसपज्जोतिता पुरिसमभिसमण्णागया पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति।।१७
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