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________________ ४८७ पुरुषवाद और पुरुषकार २. 'संयुज्यतेऽन्योन्यं दव्यमनेनेत्यायोजनं कर्म' सृष्टि की आदि में द्वयणुक के उत्पादक दो परमाणुओं की क्रिया आयोजन कहलाती है। किसी भी क्रिया से कार्य की उत्पत्ति होती है तो वह क्रिया अवश्य ही किसी स्वसमानकालिक प्रयत्न से उत्पन्न होती है। सृष्टि की आदि में दो परमाणुओं की क्रिया द्वयणुक रूप कार्य को उत्पन्न करती है, अतः उसको भी स्वसमानकालिक किसी प्रयत्न से अवश्य उत्पन्न होना चाहिए। यह प्रयत्न स्वयं परमेश्वर के आश्रय से संभव है। ३. "ब्रह्माण्डपर्यन्तं हि जगत् साक्षात्परम्परया वा विधारक प्रयत्नाधिष्ठितं गुरुत्वे सत्यपतनधर्मकत्वात् वियति विहंगमशरीरवत्" गुरु द्रव्य पतनशील होता है, किन्तु अन्य द्रव्य का संयोग और प्रतिबंधक प्रयत्न, इन दोनों में से कोई एक द्रव्य को पतन से रोकता है। जैसे छींके पर रखा हुआ दही का मटका अथवा आकाश में उड़ता हुआ पक्षी नहीं गिरता है वैसे ही गुरुतर द्रव्य ब्रह्माण्ड का पतन प्रतिबंधकी भूत परमेश्वर के कारण नहीं होता है। ४. "ब्रह्माण्डादि द्वयणुकपर्यन्तं जगत् प्रयत्नवद्विनाश्यम् विनाश्यत्वात् पाद्यमानपटवत्" जिस प्रकार 'निर्माण' कार्य प्रयत्न से युक्त कोई पुरुष ही कर सकता है, उसी प्रकार संहार भी प्रयत्न से युक्त कोई पुरुष ही कर सकता है। जैसे कि पट की उत्पत्ति और विनाश में दृष्टिगोचर होता है। इसी प्रकार जगत् का संहार प्रयत्न से युक्त पुरुष के बिना संभव नहीं है और तादृश प्रयत्न का आश्रय पुरुष परमेश्वर ही है। ५. पद्यते गम्यते व्यवहाराङ्गमर्थोऽनेन व्यवहार का अंगीभूत अर्थ जिससे ज्ञात हो उसे पद कहते हैं। इस दृष्टि से पद का अर्थ 'वृद्ध व्यवहार' भी किया गया है। सृष्टि के प्रारम्भ में जब जीवों के शरीरों का निर्माण होता है, तब वे व्यवहार से पूर्णतः अपरिचित होते हैं। जैसे जुलाहा कपड़ा बुनने का नैपुण्य किसी की शिक्षा से ही प्राप्त करता है। नैपुण्य शिक्षा की यह परम्परा कहीं पर अवश्य विराम को प्राप्त होती है। वह विराम अवस्था अन्य की अपेक्षा नहीं रखने वाले किसी परम पुरुष में ही हो सकती है। वह अन्यानपेक्ष पुरुष परमेश्वर ही है। उस ६. प्रत्ययात्- प्रत्यय अर्थात् विश्वास । यथार्थज्ञान जिस पुरुष में रहता है, पुरुष के द्वारा उच्चरित तद्विषयक वाक्य ही प्रमाण कहलाता है। इसी रीति से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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