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________________ ४८६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण और परमात्मा के रूप में आत्मा को विभाजित किया है तथा परमात्मा को ही ईश्वर कहा है। ईश्वर का ज्ञान नित्य है। ईश्वर सभी प्रकार की पूर्णता से युक्त है। ईश्वर न बद्ध है और न मुक्त। ईश्वर स्रष्टा और पालनकर्ता होने के अतिरिक्त विश्व का संहर्ता भी है। ईश्वर दयालु, कृपालु एवं अनन्त गुणों से युक्त है। ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माऽऽफल्यदर्शनात् । ११४ पुरुष अर्थात् जीव के कर्मों की विफलता दृष्टिगोचर होने से ईश्वर की कारणता सिद्ध होती है। अभिप्राय यह है कि प्रयत्न करता हुआ जीव हमेशा ही कर्म के फल को प्राप्त नहीं करता, अपितु कभी-कभी असफल भी होता है। अतः पुरुषार्थ आदि दृष्ट कारण उसकी सफलता या विफलता में साधक नहीं हैं, बल्कि ईश्वरेच्छा उसकी नियामिका है। ईश्वर प्राणिमात्र के कर्मों के फलों का न्यायतः प्रदाता है तथा हमारे सुखों और दुःखों का नियामक है। उसके आदेश और नियन्त्रण में रहकर ही जीव अपने कर्मों का सम्पादन करता है तथा अपने जीवन के उच्च लक्ष्यों को प्राप्त करता है। ईश्वर का लक्षण वात्स्यायन ऋषि इस प्रकार करते हैं'गुणविशिष्टमात्मान्तर- मीश्वरः अर्थात् गुण विशेष से युक्त एक प्रकार का आत्मा ही ईश्वर है। अतः एक पुरुष विशेष ईश्वर है और वह समस्त कार्यों का जनक या कारण है। ११५ . ईश्वरवाद की सिद्धि में साधक प्रमाण न्यायाचार्य उदयन ने ईश्वर के संबंध में 'न्यायकुसुमांजलि' नामक ग्रन्थ की रचना की। उनका ईश्वर निरूपण प्रधानक यह ग्रन्थ पाँच स्तबकों में विभक्त है। इनमें से पहिले चार स्तबकों के द्वारा ईश्वर सत्ता की विरोधिनी युक्तियों का खण्डन किया गया है। पाँचवें स्तबक में ईश्वर के साधक प्रमाणों का उल्लेख है, यथा कार्यायोजनधृत्यादेः पदात्प्रत्ययतः श्रुतेः । ,११६ वाक्यात्संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वविदव्ययः । Jain Education International १. क्षित्यादिकं सकर्तृकं कार्यत्वात् घटवत्- घटादि जितने भी कार्य दृष्ट हैं, वे सभी किसी कर्ता के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। क्षित्यंकुरादि भी कार्य ही हैं, अतः उनकी उत्पत्ति भी किसी कर्ता से ही है । क्षित्यंकुरादि का यह कर्तृत्व अस्मदादि में संभव नहीं है, अतः अस्मदादि से विलक्षण क्षित्यंकुरादि का कर्ता परमेश्वर है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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