________________
पुरुषवाद और पुरुषकार ४८५ को अपने में से स्वयं निकालता है। अत: वह उनका कारण होता है वैसे ही ब्रह्म समस्त जीवों का कारण होता है। प्रभाचन्द द्वारा निरसन
वैदिक शास्त्र में जहाँ कहीं ब्रह्म के एकत्व का वर्णन है वह मात्र अतिशयोक्ति रूप है, वास्तविक नहीं है। जब पदार्थों में भेद स्वतः ही है अर्थात् प्रत्येक वस्तु स्वत: अन्य वस्तु से अपना पृथक् अस्तित्व रखती है तब उनको अभेद रूप मानना अतिशयोक्तिपूर्ण कल्पना से अधिक कुछ नहीं है। मकड़ी आदि प्राणी स्वभाव से जाल नहीं बनाते हैं, किन्तु आहार-संज्ञा के कारण ही उनकी ऐसी प्रवृत्ति होती है, अत: इस उदाहरण से "ब्रह्मा सृष्टि की रचना करता है" यह सिद्ध नहीं होता है।११०
आगम के स्ततिरूप या प्रशंसा रूप वचनों को सत्य नहीं मानना चाहिए, क्योंकि इसमें अतिप्रसंग दोष आता है। जैसे पत्थर पानी में तैरता है, अन्धा मणि को पिरोता है इत्यादि अतिशयोक्तिपूर्ण वचनों को सत्य मानने पर अतिप्रसंग आता है। ब्रह्मा ही ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, स्थिति और नाश का कारण है, यह मानना भी गलत है क्योंकि अद्वैत में कार्यकारणभाव असंभव है। कार्यकारणभाव तो द्वैत में ही हो सकता है क्योंकि एक कारण और एक कार्य इन दो पदार्थों में ही कार्यकारणभाव बनता है। इस प्रकार आगम सम्मत आपके तर्क मिथ्यासिद्ध होते हैं।
इस प्रकार ब्रह्म की अद्वैतता एवं जगत्कारणता को वेदान्तमत के अनुसार उपस्थापित कर आचार्य प्रभाचन्द्र ने उसका युक्तियुक्त निरसन किया है। ईश्वरवाद : पक्ष-प्रतिपक्ष पुरुषवाद का विकास ईश्वरवाद में
पुरुषवाद का ही विकास ईश्वरवाद के रूप में हुआ है। न्याय, वेदान्त आदि दर्शनों में जगत्स्रष्टा ईश्वर का निरूपण हुआ है। योगदर्शन में ईश्वर को क्लेश एवं कर्म-विपाक के आशय से अपरामृष्ट पुरुष विशेष के रूप में प्रतिपादित किया गया है।१२ ईश्वर का प्रयोजन प्राणियों के प्रति अनुग्रह करना है। वेदान्त दर्शन में ईश्वर अज्ञान की समष्टि से आच्छन्न है, वह ही सृष्टि-निर्माण में उपादान एवं निमित्त कारण बनता है।११३ ईश्वर की सिद्धि में सर्वाधिक चिन्तन न्याय-वैशेषिक दर्शनों में हुआ है। यहाँ इन्हीं दर्शनों के आधार पर ईश्वरवाद की चर्चा की जा रही है। - न्याय-वैशेषिक दर्शन ईश्वरवादी दर्शन है। महर्षि गौतम ने ईश्वर को सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ के रूप में प्रतिपादित किया है। न्याय-वैशेषिक ने जीवात्मा .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org