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पुरुषवाद और पुरुषकार ४८३ यतः १०२ सूत्र इसी ब्रह्मवाद का पोषक है। ब्रह्मवाद में जगत् की परिकल्पना के मूल में माया को माना जाता है और वहाँ मायोपहित ब्रह्म ही जगत् का कारण है। ब्रह्मवाद एकात्मवाद भी मानता है, जिसे ब्रह्माद्वैतवाद कहा जाता है। इनके अनुसार सारा विश्व एक ब्रह्मस्वरूप है। ब्रह्मवादी अपने मत को प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम प्रमाण और अन्य तकों से सिद्ध करते हैं तथा प्रभाचन्द्राचार्य(१०वीं शती) इनकी दी गई युक्तियों का खण्डन करते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण से ब्रह्मवाद की सिद्धि
___ आँख के खोलते ही दृष्टि पथ में आने वाले विषयों का निर्विकल्प प्रत्यक्ष होता है। इस निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा सर्वत्र एकत्व का भान, बिना किसी भेदप्रतीति के शीघ्रातिशीघ्र जो होता है वही वस्तु का स्वरूप है। संसार में जो भेद की प्रतीति होती है, वह अविद्या, संकेत, स्मरण आदि से उत्पन्न होती है। जिसके कारण घट-पट आदि भिन्न-भिन्न पदार्थ ज्ञात होते हैं, इसलिए वस्तुत: भेद वस्तु का स्वरूप नहीं है। इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा अखंड परम ब्रह्म सिद्ध होता है।०३ प्रभाचन्द द्वारा निरसन .
उपर्युक्त कथन उचित नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण साक्षात् ही यह घट है, यह पट है इत्यादि भेद रूप कथन करता है, न कि अभेद रूप।
ब्रह्मवाद में काल्पनिक भेदों से भेदव्यवस्था मानी जाती है। जैसे- एक ही आत्मा में काल्पनिक भेद करके कहा जाता है कि मेरे मस्तक में दर्द है, मेरे पैर में पीड़ा है, इत्यादि दुःख के भेद की व्यवस्था होती है। किन्तु इस प्रकार भेदव्यवस्था स्वीकार करना भी समुचित नहीं है।
___ जैन मान्यतानुसार अद्वैतवादियों द्वारा भेद का खण्डन करने के दो पक्ष हो सकते हैं- १. भेद प्रमाण से बाधित है या २. अभेद को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण है। प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाण भेद के अनुकूल ही हैं, वे भेदों में बाधक नहीं बनते। भेद के अभाव में प्रमाण और अप्रमाण की व्यवस्था नहीं रहती। अभेद को सिद्ध करने वाला प्रमाण रूपी दूसरा पक्ष भी उचित नहीं है, क्योंकि भेद के बिना साध्य और साधन का भाव कैसे बन सकता है। अत: अभेद को सिद्ध करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं है। १०५
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