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________________ जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण कोई यह कहे कि जिस प्रकार ऊर्णनाभ स्वभावतः प्रवृत्त होता हुआ भी अपने कार्यों को युगपत् नहीं करता है उसी प्रकार पुरुष भी अपने कार्यों को युगपत् नहीं करता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि ऊर्णनाभ की प्राणि-भक्षण लम्पटता के कारण अपने कार्य में प्रवृत्ति स्वभाव से नहीं होती है अन्यथा वहाँ भी यह दोष समान रूप से उत्पन्न होगा। यह ऊर्णनाभ नित्य एक स्वभाववाला नहीं होता, अपितु स्वहेतु के बल से होने वाले परापर कादाचित्क शक्ति वाला होता है, इसलिए उससे होने वाले कार्य की क्रम से प्रवृत्ति उचित ही है। पुरुष यथा कथंचित् अबुद्धिपूर्वक ही जगत्-निर्माण में प्रवृत्त नहीं होता है, क्योंकि इस प्रकार तो वह प्राकृत पुरुष से भी हीन हो जाएगा। इसी तरह प्रजापति आदि की जगत् की कारणता का निरास समझना चाहिए।१०१ ४८२ इस प्रकार 'पुरुषवाद' के संबंध में वेद, उपनिषद्, पुराण, महाभारत, रामायण आदि के साथ जैन ग्रन्थों में भी विशद चर्चा हुई है तथा जैनाचार्यों ने पुरुषवाद की मान्यता का प्रबल निरसन किया है। निरसन करते समय जैनाचार्यों ने पुरुषवाद के स्वरूप को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किए है तथा विभिन्न तर्कों के द्वारा उसका निरसन किया है। 'पुरुष एवेदं सर्वम्' पुरुष की सर्वगतता, अद्वैतता, सृष्टि रचनाकार्य एवं पुरुष की जाग्रत, सुप्त, सुषुप्त तथा तूर्य अवस्थाओं का खण्डन जैनाचार्यों के चिन्तन की विशदता को अभिव्यक्त करता है। ब्रह्मवाद : पूर्वपक्ष एवं उत्तरपक्ष देववाद, ब्रह्मवाद, ईश्वरवाद आदि आगमकालीन मतों का पश्चात् काल में भी पल्लवन एवं पुष्टिकरण होता रहा । फलस्वरूप दार्शनिक युग में ब्रह्मवाद, देववाद या पुरुषवाद और ईश्वरवाद के मन्तव्य दार्शनिकों ने स्वीकार किये तथा उनको अपनी रचनाओं में शामिल किया। जैनाचार्यों को ये सभी वाद मान्य नहीं थे, अतः अपने ग्रन्थों में उन्होंने इनका स्वरूप एवं खण्डन प्रस्तुत किया है। विशेषतः प्रभाचन्द्राचार्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रमेयकमलमार्तण्ड में ब्रह्मवाद के पूर्वपक्ष को तर्कपुरस्सर उपस्थापित किया है तथा फिर उसका युक्तिपूर्वक निरसन भी किया है। यहाँ प्रमेयकमलमार्तण्ड के आधार पर ब्रह्मवाद के स्वरूप के पूर्वपक्ष एवं उत्तरपक्ष की चर्चा की जा रही है। प्रमेयकमलमार्तण्ड में ब्रह्मवाद का स्वरूप एवं खण्डन ब्रह्म ही जगत् के चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त आदि समस्त पदार्थों का उपादान कारण होता है - ऐसा मन्तव्य ब्रह्मवादियों का है । ब्रह्मसूत्र का 'जन्माद्यस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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