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पुरुषवाद और पुरुषकार ४८१ “उत्पन्न होने वाले कार्यों का हेतु पुरुष है, उत्पत्ति से रहित का नहीं, आकाशकुसुम के समान सब कुछ युगपद् हो जाएगा।'
अन्यथा
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निरुद्देश्य और अनुकम्पा से सृष्टि की रचना अनुचित - प्रेक्षावान् पुरुषों की प्रवृत्ति प्रयोजनवती होती है तो क्या पुरुष भी जगत् की उत्पत्ति में प्रयोजन को उद्देश्य करके प्रवृत्त होता है। ईश्वर आदि की प्रेरणा से नहीं होता है, अन्यथा उस पुरुष में अस्वतन्त्रता का प्रसंग आ जाएगा। अनुकंपा से दूसरों का उपकार करने के लिए भी जगत् की रचना करना संभव नहीं है, क्योंकि तब दुःखी प्राणियों की रचना नहीं की जा सकती है। उनके कर्म का क्षय करने के लिए दुःखी प्राणियों के निर्माण में प्रवृत्ति स्वीकार की जाए तो यह भी समुचित नहीं है। क्योंकि इसमें उन जीवों के द्वारा कृत कर्मों की अपेक्षा रखनी होगी। दूसरी बात यह है कि सृष्टि के पहले अनुकंपा योग्य प्राणियों का सद्भाव नहीं रहता, इस तरह निरालम्बन अनुकम्पा का अयोग होने से इसके कारण भी जगत् की रचना में प्रवृत्ति मानना उचित नहीं है । १७ अनुकम्पा से प्रवृत्ति मानने पर सुखी प्राणियों के विनाशार्थ प्रवृत्ति उचित नहीं होने के कारण देव आदि का प्रलय अनुपपन्न हो जाएगा। दूसरी बात यह है कि जो समर्थ और कृपालु है, वह दुःख के कारण अधर्म आदि की अपेक्षा रखकर दुःखी प्राणियों की रचना करे यह भी उचित नहीं है। कृपालु तो दूसरों के दुःख के कारण को ही नहीं चाहते वे तो परदुःख के वियोग की इच्छा से ही सदा प्रवृत्ति करते हैं। १८
युगपत् और क्रमपूर्वक जगत् का निर्माण असमीचीन- क्रीड़ा से भी जगत् रचना में पुरुष की प्रवृत्ति मानना समीचीन नहीं है। क्योंकि क्रीड़ा से जगत् को उत्पन्न करने में भी जगत् की उत्पत्ति की अपेक्षा से वह पुरुष अस्वतन्त्र हो जाएगा। क्योंकि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयात्मक विचित्र क्रीड़ा के उपाय की उस उत्पत्ति में अपेक्षा रहेगी। तभी विचित्र क्रीड़ा के उपाय की वृत्ति में उस पुरुष की पहले से ही शक्ति है तो वह युगपद् ही समस्त जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की रचना कर देगा। यदि उसके पास प्रारम्भ में यह शक्ति नहीं है तो अशक्त अवस्था के होने के कारण क्रम से भी वह उत्पत्ति-स्थिति- प्रलय को सम्पन्न नहीं कर सकेगा। एक ही स्थान पर एक का शक्त और अशक्त होना विरोधी धर्म है । "
अबुद्धिपूर्वक जगत्-1 - निर्माण में प्रवृत्ति नही- पुरुषवादी मात्र पुरुष को जगत् का कारण मानते है इसलिए उसमें सहकारी कारणों की अपेक्षा दूर से ही निरस्त हो जाती है। पृथ्वी आदि महाभूतों में तो अपने हेतु के बल से आए हुए अन्यान्य स्वभाव के सद्भाव से उनसे उत्पाद्य कार्य की युगपद् उत्पत्ति आदि का दोष संभव नहीं है। "
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