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________________ ४८० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण स सर्वज्ञः सर्ववित् सर्वमेवाविवेश", "एकया पूर्णयाऽऽहुत्या सर्वान् कामान् वाप्नोति।" "एषः वः प्रथमो यज्ञो योऽग्निष्टोमः योऽनेनिष्ट्वाऽन्येन यजते स गर्तमभ्यपतत्" इस वाक्य में पशुमेध आदि करने की निन्दा की गई है, इसलिए ये निन्दार्थ प्रतिपादक वाक्य हैं। अनुवाद प्रतिपादक वाक्य हैं- "द्वादश मासाः संवत्सरः" "अग्निरुष्ण" "अग्निहिमस्य भेषजं।" अतः 'पुरुष एवेदं सर्व' स्तुति रूप अर्थवाद वाक्य है।९२ 'विज्ञानघन एवैतेभ्य' वेद वाक्य से अभिप्राय है कि विज्ञानघन आत्मा पंचभूत अर्थात् शरीर से भिन्न है और वह शरीर रूपी कार्य का कर्ता है। कर्ता व कार्य के होने से यह अनुमान होता है कि इसका कोई करण होना चाहिए। जैसे लुहार और लोह-पिंड का सद्भाव होने पर कारणभूत संडासी का अनुमान होता है, वैसे ही आत्मा द्वारा शरीर आदि कार्य करने में करणभूत कर्म की आवश्यकता होती है। कर्म की सत्ता का साक्षात् प्रतिपादन इस वाक्य से होता है- "पुण्यः पुण्येन कर्मणा, पाप: पापेन कर्मणा" अर्थात् पवित्र कार्य से पुण्य और अपवित्र कार्य से पाप होता है। इस प्रकार आगम से कर्म की सिद्धि होती है। अतः पुरुषवाद का तुम्हारा मत असत्य है।९३ सन्मतितर्क-टीका में अभयदेवसूरि द्वारा प्रस्तुत पुरुषवाद एवं उसका निरसन पूर्वपक्ष- एक पुरुष ही समस्त लोक की स्थिति, सर्ग और प्रलय का हेतु है। प्रलय में भी वह अलुप्त ज्ञानातिशय की शक्ति से युक्त होता है। जैसा कि कहा है ऊर्णनाभ इवांऽशूनां चन्द्रकान्त इवाऽम्भसाम्। प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम्।। जिस प्रकार तन्तुओं का कारण ऊर्णनाभ, जल का कारण चन्द्रकान्त मणि तथा जटाओं का कारण वटवृक्ष होता है इसी प्रकार सभी उत्पन्न होने वाले कार्यों का कारण वह पुरुष होता है। 'पुरुष एवेदं सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम्।' वर्तमान, भूत, भविष्य में जो कुछ था, है और होने वाला है- वह सब पुरुष ही है।९५ निरसन- पुरुष को जगत् की स्थिति, सर्ग और प्रलय का कारण मानना उसी प्रकार असंगत है जिस प्रकार ईश्वर की जगत् हेतुता असंगत है। जैसा कि कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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