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________________ पुरुषवाद और पुरुषकार ४७९ पुरुष की सर्वगतता का निरसन जब पुरुष की लक्षण स्वरूप विनिद्रावस्था पुरुष नहीं है, पुरुष का लक्षण होने से, विनिद्रावस्था के समान। इसी प्रकार अन्य अवस्थाओं में भी जानना चाहिए। इससे पुरुष का अभावसिद्ध होता है। जब पुरुष का ही अभाव है तो सर्वगतता कैसे सिद्ध होगी? जिस प्रकार उष्णता का निरसन हो जाने से अग्नि का अभाव सिद्ध होता है, उसी प्रकार पुरुष का लक्षण सिद्ध न होने से पुरुष का अभाव सिद्ध होता है। द्वादशारनयचक्र में इस प्रकार मल्लवादी क्षमाश्रमण ने न केवल पुरुष की सृष्टिकारणता का निरसन किया है, अपितु उन्होंने पुरुष के स्वरूप, उसकी चार अवस्थाओं पुरुष एवं इदं सर्व, पुरुष की अद्वैतता, उसकी सर्वगतता आदि का भी प्रमाणपुरस्सर खण्डन किया है। विशेषावश्यक भाष्य में पुरुषवाद का निरूपण एवं निरसन जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (६-७वीं शती) विरचित विशेषावश्यक भाष्य में गणधरवाद' के अन्तर्गत पुरुषवाद की चर्चा समुपलब्ध होती है। वहाँ गणधर अग्निभूति के मुख से 'पुरुष एवेदं सर्वम् ' वेदवाक्य की व्याख्या में पुरुषवाद को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है पूर्वपक्ष- "सभी दृष्टिगोचर होने वाले पदार्थ चेतन-अचेतन स्वरूप हैं। जो उत्पन्न हो चुके हैं, जो उत्पन्न होने वाले हैं, जो मोक्ष के स्वामी हैं, जो आहार से वृद्धिंगत होते हैं, जो पशु आदि चलते हैं, जो पर्वत आदि नहीं चलते हैं, जो मेरु आदि दूर हैं तथा कुछ नजदीक है, जो सबके अन्दर हैं और जो सबके बाहर हैं- ये सभी पुरुष रूप हैं, इससे अतिरिक्त कर्म नाम की कोई वस्तु नहीं है।"९० निरसन- भगवान महावीर 'पुरुष एवेदं सर्वम् ' वेद वाक्य को स्तुतिपरक बताते हुए पुरुषवाद का निरसन करते हैं। वे कहते हैं कि वेदों में कुछ वाक्य अर्थवाद और विधिवाद का प्रतिपादन करने वाले हैं तो कुछ अनुवाद प्रतिपादक हैं। 'पुरुष एवेदम्' इत्यादि वेद के पद आत्मस्तुति परक हैं तथा इसमें जाति आदि मद का त्याग करने हेतु अद्वैत प्रतिपादन हुआ है। 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' आदि विधिवाक्य है, क्योंकि ये स्वर्गेच्छु के लिए यज्ञ का विधान करते हैं। अर्थवाद दो प्रकार के होते हैं- १. स्तुति अर्थवाद और २. निन्दा अर्थवाद। स्तुतिपरक अर्थवाद के वाक्य हैं, यथा- 'पुरुष एवेदं सर्वम् ' "स सर्वविद् यस्यैष महिमा भुवि दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्नि आत्मा सुप्रतिष्ठितस्तमक्षरं वेदयते यस्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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