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________________ ४७८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण अन्य सुप्त आदि अवस्थाओं का अभाव होने के कारण पुरुष के स्वरूप का अवधारक कौन होगा? इस प्रकार अवधारण का अभाव हो जाएगा अथवा पूर्ववत् प्रतिज्ञा की हानि हो जाएगी। 'पुरुष एव इदं सर्व' का निरसन- पुरुष की स्वात्मा ही उसकी अवस्था है। यदि अवस्था नहीं है तो पुरुष नहीं है। जैसे खपुष्प की कोई अवस्था नहीं है, अत: खपुष्प नहीं है। यदि पुरुष की अवस्था को स्वीकार भी किया जाए तो पुरुष की चार अवस्थाओं की एकता सिद्ध होती है। क्योंकि वे सभी पुरुष की ही स्वरूप है। उदाहरणार्थ विनिद्रा अवस्था ही जाग्रत अवस्था है, विनिद्रा अवस्था स्वरूप होने के कारण, विनिद्रा अवस्था के समान है। इसी प्रकार अन्य अवस्थाओं में भी समझनी चाहिए। जाग्रत अवस्था ही विनिद्रा अवस्था है। जाग्रत अवस्था स्वरूपक होने के कारण, जाग्रत अवस्था के समान। इसी प्रकार अन्य अवस्थाओं में भी समझना चाहिए। सुप्तावस्था ही विनिद्रावस्था है। सुप्तावस्था स्वरूप होने के कारण सुप्तावस्था के समान। इसी प्रकार अन्य अवस्थाएँ भी है। सुषुप्तावस्था ही विनिद्रावस्था है, सुषुप्तावस्था स्वरूप होने के कारण सुषुप्तावस्था के समान। इसी प्रकार अन्य अवस्थाएँ भी समझना चाहिए। जो अन्य अवस्था है, वह अन्य भी है एक स्वरूप होने के कारण, उस अन्य स्वरूप अवस्था के समान। इस प्रकार भेदाभाव के कारण 'पुरुष एव इदं सर्व' के अतिदेश का अभाव सिद्ध होता है। पुरुष की अद्वैतता का निरसन जो यह कहा जाता है कि पुरुष एक ही है, उसकी भी अनेकता की आपत्ति आती है। जिसके स्वरूप से अव्यतिरिक्त (अभिन्न) लक्षण वाली अवस्थाएँ बिना भेद के कही जाती हैं, वह पुरुष भी पुरुषस्वरूप से अभिव्याप्त होने के कारण अनवस्थित एक तत्त्व की प्रतिष्ठा वाला पुरुष है, इस रूप में अतिदेश होता है। पुरुष स्वात्म वाला होने के कारण प्रत्यक्ष अर्थ में 'इदं' को विषय करने पर अचेतन, व्यक्त, मूर्त, अनित्य आदि रूप अर्थ के रूप में पुरुष की परमार्थता सिद्ध होती है। पुरुष की विभिन्न अवस्थाओं को स्वीकार करने के कारण पुरुष में अन्यत्व और एकत्व की भी सिद्धि होती है। वे विनिद्रा आदि अवस्थाएँ पुरुष से अन्य है और उन अवस्थाओं से पुरुष अन्य है। अन्यथा दोनों में एक ही स्वरूप की आपत्ति आ जाएगी। जिस प्रकार विनिद्रा अवस्था सुप्तावस्था से भिन्न है उसी प्रकार पुरुष की विभिन्न अवस्थाएँ भी पुरुष से भिन्न हैं। पुरुष का अतिदेश स्वीकार यदि किया जाता है तो भी स्व-पर विषयकृत भेद के द्वारा पृथक्-पृथक् पुरुष की सिद्धि होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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