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________________ liii ४०२ ४०२ ४०३ ४०३ ४०४ ४०४ ४०५ ४०६ ४०७ ४०८ ४०८ ४०८ • मूर्त कर्म का अमूर्त आत्मा से संबंध • जीव-कर्म का अनादि संबंध कर्म का कर्ता : जीव कर्मबंध अनादि सान्त है पुण्य-पाप का स्वरूप पुण्य-पाप कर्मों का फल : स्वर्ग-नरक देहादि की प्राप्ति एवं सुख-दुःखादि में पुण्य-पाप की कारणता • कर्मपुद्गल ग्रहण की प्रक्रिया • कर्म-संक्रम का नियम • जीव के साथ कर्म का वियोग संभव » कर्म सिद्धान्त : कतिपय अन्य बिन्दु • कर्म की मूर्तता के संबंध में विचार • मूर्त कर्म से अमूर्त आत्मा का संबंध और प्रभाव • कर्म-फल संविभाग नहीं कर्म-सिद्धान्त के दो महत्त्वपूर्ण तथ्य : गुणस्थान एवं मार्गणास्थान आत्मा और कर्म से संबंधित समस्याएँ - कर्म पहले या आत्मा? - कर्म बलवान या आत्मा? - अनादि का अन्त कैसे? • कर्म और पुनर्जन्म » जैन कर्म सिद्धान्त संबंधी साहित्य • श्वेताम्बर परम्परा में • दिगम्बर परम्परा में ४०९ ४०९ ४११ ४१२ ४१२ ४१३ ४१४ ४१५ ४१६ ४१६ ४१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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