SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 528
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषवाद और पुरुषकार ४६७ एकमेवाद्वितीयं वै ब्रह्म नित्यं सनातनम्। द्वैतभावं पुनर्याति उत्पित्सुसंज्ञके।।" एकमात्र ब्रह्म ही अद्वितीय है। वही नित्य और सनातन है, परन्तु जब वह विश्व की रचना में तत्पर होता है तब वह अनेक रूप हो जाता है। जैसे किसी उपाधि के कारण दीपक एक से अनेक रूप हो जाता है या दर्पण में प्रतिबिम्ब दिखाई देने पर एक का अनेकत्व प्रतीत होता है, ठीक वैसे ही जगत् और ब्रह्मा में अनेकत्व की प्रतीति होती है। सृष्टिकाल में ब्रह्मा से सर्जन के लिए ही भेद होता है और सृष्टि का अन्त होने पर किसी प्रकार का भेद नहीं रह पाता।२१ ब्रह्म-वैवर्त पुराण में जगदुत्पत्ति- एकाकी और असहाय प्रभु ने गोलोक और जीव जगत् को जीव रहित, जल रहित, वायु रहित, प्रकाश रहित अंधकार से व्याप्त, घोर, भयंकर और शून्य रूप देखकर मन से विचार किया कि सृष्टि की रचना करूँ। ऐसा विचार करके स्वतन्त्र प्रभु ने अपनी इच्छा से सृष्टि की रचना प्रारम्भ की।६ यथा आविर्बभूवुः सर्गादौ, पुंसो दक्षिणपार्वतः। भवकारणरूपाश्च, मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः।।" सर्ग की आदि में प्रभु के दक्षिण पार्श्व से संसार के कारणभूत सत्त्व, रज और तम ये तीनों गुण साक्षात् मूर्तिमन्त रूप में प्रकट हुए। इनसे महान्, अहंकार और रूप रसादि पंच तन्त्र मात्राएँ प्रकट हुई। इस प्रकार जगदुत्पत्ति हुई। मार्कण्डेय पुराण में ९ सर्ग- मार्कण्डेय पुराण के ४४वें अध्याय में सर्ग के नौ प्रकार बताये गये हैं। उनको संक्षेप में यहाँ उद्धृत किया जा रहा है पहला महत् सर्ग है, जिसमें महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है। दूसरा भूत सर्ग है, जिसमें पाँच तन्मात्राएँ और पाँच भूतों की उत्पत्ति होती है। तीसरा वैकारिक सर्ग है, जिसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन- इस एकादश गण की उत्पत्ति होती है। ये तीनों सर्ग प्राकृत सर्ग कहलाते हैं।२८ चौथा मुख्य सर्ग है जिसमें स्थावर की उत्पत्ति होती है। पाँचवां तिर्यक् स्रोत सर्ग कहलाता है जिसमें पशुपक्षी आदि तिर्यचों की उत्पत्ति मानी गई है। छठा ऊर्ध्वस्रोत सर्ग है जिसमें देवों की उत्पत्ति मान्य है। सातवाँ अर्वाक स्रोतसर्ग है, जिसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy