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________________ ४६६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण __ काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा और भूतों को सृष्टि में कारण मानने वालों के अतिरिक्त कुछ ऐसे भी विद्वान् हैं जो पुरुष को जगदुत्पत्ति में कारण मानते हैं। (ख) यस्मात्यरं नापरमस्ति किंचिद्यास्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्ण पुरुषेण सर्वम्।। -श्वेताश्वतरोपनिषद् ३.९ जिससे श्रेष्ठ दूसरा कुछ भी नहीं है, जिससे अधिक कोई भी न तो सूक्ष्म है, न महान् ही है। जो अकेला ही वृक्ष की भाँति निश्चल भाव से प्रकाशमय आकाश में स्थित है। उस परमपुरुष पुरुषोत्तम से यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है। ३. देवस्यैष महिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम्। -श्वेताश्वेतरोपनिषद् ६.१ अर्थात् यह परमदेव परमेश्वर की समस्त जगत् में फैली हुई महिमा है, जिसके द्वारा यह ब्रह्मचक्र घुमाया जाता है। इस प्रकार उपनिषद् वाङ्मय में जगदुत्पत्ति में परम पुरुष की कारणता प्रतिपादित है। पुराणों में पुरुषवाद पर विचार वेद में केवल जगत् की उत्पत्ति का वर्णन है जबकि पुराण में उत्पत्ति के साथ प्रलय का भी वर्णन प्राप्त होता है। पुराणों में कई पुराण रजोगुण प्रधान हैं, कई तमोगुण प्रधान हैं और कई सत्त्वगुण प्रधान हैं। रजोगुण प्रधान पुराणों ने ब्रह्मा की महिमा गाई है, तमोगुण प्रधान पुराणों ने महेश्वर-शिव की महिमा बताई है और सत्त्व गुण प्रधान पुराणों ने विष्णु की महिमा प्रदर्शित की है।२९ वस्तुत: इन तीनों देवों का आविर्भाव एक ब्रह्मस्रोत से ही होता है। हरिवंश पुराण, देवी भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, मार्कण्डेय पुराण में सृष्टि रचना का वर्णन प्राप्त होता है। हरिवंश पुराण में विश्वोत्पत्ति- भगवान नारायण ने ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण अपने योगमय ज्ञान स्वभाव से सनातन दिव्य पुरुष का सर्जन किया। उस सनातन पुरुष का द्रव भाग जल, स्थूल भाग पृथ्वी, पोला भाग आकाश, ज्योति भाग नेत्र और शरीर का स्पन्दन ही वायु था। इस प्रकार इन पाँचों के संघात से ज्योति की उत्पत्ति हुई तथा उस अव्यक्त पुरुष से पाँच भौतिक पुरुष अर्थात् विश्व की उत्पत्ति हुई।२२ देवी भागवत पुराण में सृष्टि की रचना- देवी भागवत पुराण में सर्ग और प्रलय का वर्णन करते हुए ब्रह्म को स्रष्टा के रूप में इस प्रकार कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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