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पुरुषवाद और पुरुषकार ४६५ देवता उत्पन्न हुआ। दोनों आँखों से चक्षुरिन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय से सूर्य प्रकट हुआ। दोनों कानों से श्रोत्रेन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय से दिशाएँ पैदा हुई। त्वचा से रोम और रोम से औषधि और वनस्पतियाँ प्रकट हुई। हृदय से मन का आविर्भाव हुआ और मन से चन्द्रमा, नाभि से अपान वायु और अपान वायु से मृत्यु देवता उत्पन्न हुआ। उसके बाद लिंग प्रकट हुआ और लिंग से वीर्य, वीर्य से जल उत्पन्न हुआ। इस प्रकार सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण हुआ।
तैत्तिरीयोपनिषद् की ब्रह्मानन्द वल्ली में जगदुत्पत्ति ब्रह्म से मानी है। वहाँ ब्रह्म का स्वरूप 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म अर्थात् सत्य, अनन्तज्ञानरूप बताया गया है। उस परमात्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वीतत्त्व उत्पन्न हुआ। पृथ्वी से समस्त औषधियाँ और औषधियों से अन्न की उत्पत्ति हुई। अन्न से यह मनुष्य शरीर बना।" इस संदर्भ में छान्दोग्योपनिषद् की उक्ति 'सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति' सत्य ही प्रतीत होती है कि यह सारा जगत् निश्चय ब्रह्म ही है, यह उसी से उत्पन्न होने वाला, उसी में लीन होने वाला और उसी में चेष्टा करने वाला है। यह ब्रह्मा विश्व का कर्ता होने के साथ विश्व का रक्षक भी है।२०
प्रश्नोपनिषद् में प्रजापति को सृष्टि का सर्जक स्वीकार किया गया है। वहाँ महर्षि कहते हैं कि निश्चय ही प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा वाला प्रजापति है। जिसने तप करके (रवि) चन्द्रमा और सूर्य (प्राण) का जोड़ा इस उद्देश्य से उत्पन्न किया कि वे नाना प्रकार की प्रजाओं को उत्पन्न करेंगे।
पुरुषवाद के संबंध में अन्य उक्तियाँ भी प्रसिद्ध हैं। वे निम्न हैं१. यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञास्व। तद् ब्रह्मेति।
-तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मवल्ली, अनुवाक १ अर्थात् ये सब प्रत्यक्ष दिखने वाले प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं, प्रयाण करते हुए जिसमें प्रवेश करते हैं, उसको तत्त्व से जानने की इच्छा कर, वही ब्रह्म है। २. (क) कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या
-श्वेताश्वतरोपनिषद् १.२
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