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________________ ४६४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण हुए जो कि ईश्वर के शरीर से अथवा विस्तृत शक्ति से उत्पन्न हुए। सूर्य को सात पुत्रों से दूर स्थापित किया। इन आठ पुत्रों के संबंध में विशेष विवरण देते हुए दयानन्द सरस्वती ने बताया कि जो ईश्वर की आठ प्रकृतियाँ गीता में कही हैं, यही अदिति के आठ पुत्र हैं। भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।२ अर्थात् भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार ये प्रकृतियाँ हैं। इनमें से आकाश को छोड़कर सभी से यह लोक बना। आकाश कोई ठोस पदार्थ नहीं है, उसमें ये सब स्थापित हुए। इन लोकों में सूर्य मुख्य था। इस प्रकार वेद में एक पुरुष के द्वारा ही समस्त सृष्टि की रचना स्वीकार की गई है। उस पुरुष को परम शक्तिमान और महान् माना गया है। उपनिषद् में पुरुषवाद का प्रतिपादन ऐतरेयोपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, तैत्तिरीयोपनिषद्, प्रश्नोपनिषद् आदि उपनिषदों में पुरुषवाद का वर्णन समुपलब्ध होता है। परमात्मा के संकल्प से सृष्टि की रचना को स्वीकार करते हुए ऐतरेयोपनिषद् में कहा है ऊँ आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्। नान्यत्किंचन मिणत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति।।२३ अभिप्राय यह है कि जड़-चेतनमय जगत् के प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होने से पहले कारण-अवस्था में एकमात्र परमात्मा ही थे। उस समय उनमें भिन्न-भिन्न नाम रूपों की अभिव्यक्ति नहीं थी। उस सृष्टि के आदिकाल में परम पुरुष परमात्मा ने यह विचार किया कि 'मैं प्राणियों के कर्मफल भोगार्थ भिन्न-भिन्न लोकों की रचना करूँ। यह विचार करके परब्रह्म परमेश्वर ने अम्भ, मरीचि, मर और जल- इन लोकों की रचना की। यहाँ धुलोक 'अम्भ' नाम से, अन्तरिक्ष 'मरीचि' नाम से, पृथ्वी 'मर' नाम से तथा पाताल लोक 'जल' नाम से कहा गया है। उसके बाद उन्होंने लोक पालनार्थ जल से हिरण्यगर्भ पुरुष को निकालकर उसे मूर्तिमान किया।५ परमात्मा ने उसको लक्ष्य करके संकल्प रूप तप किया। उस तप से तपे हुए हिरण्यगर्भ के शरीर से अण्डे की तरह मुखछिद्र प्रकट हुआ। मुख से वाक् इन्द्रिय और वाक् इन्द्रिय से अग्नि देवता प्रकट हुए। नासिका के छिद्रों से प्राण और प्राण से वायु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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