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________________ ४६० जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण टीका में एक परम पुरुष से सृष्टि रचना का प्रतिपादन करने वाले वाद को पुरुषवाद कहकर उसका निरसन करते हैं। यशोविजय ने भी इस अर्थ को सुरक्षित रखा है। जैनाचायों ने 'पुरुषवाद' के साथ ईश्वरवाद का भी निरसन किया है। हरिभद्रसूरि (८वीं शती) ने विंशतिविंशिका ग्रन्थ की बीजविंशिका में 'पुरिस' के स्थान पर 'पुरिसकिरियाओ' शब्द का प्रयोग करके पुरुषकारवाद अर्थात् पुरुषार्थवाद को महत्त्व दिया है, यथा तह भव्वत्तं जं कालनियइपुव्वकयपुरिसकिरियाओ । अक्खिवइ तहसहावं ता तदधीणं तयंपि भवे ।। हरिभद्रसूरि यहाँ 'पुरुष' का अर्थ 'आत्मा' अंगीकार कर उसके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को 'पुरिसकिरियाओ' कह रहे हैं। इनके अनन्तर शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग की टीका में 'पुरिस' का अर्थ 'पुरुषकार' किया है जो पुरुष के द्वारा किये जाने वाले उद्यम, उत्थान, पराक्रम आदि का सूचक है। प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने नय के अन्तर्गत कालस्वभावादि के साथ पुरुषकार नय की गणना की है। आधुनिक व्याख्याकारों में पं. दलसुख मालवणिया ने गणधरवाद की प्रस्तावना में सिद्धसेन के मन्तव्य को प्रस्तुत करते हुए जहाँ काल आदि पाँच वादों का उल्लेख किया है, वहाँ उन्होंने 'पुरिस' का अर्थ पुरुषार्थ किया है। जिनेन्द्रवर्णी को भी पुरुषार्थ अर्थ मान्य है। आचार्य महाप्रज्ञ को पुरुषवाद और पुरुषकार दोनों अर्थ स्वीकार्य है। प्रायः आधुनिक जैनाचार्य एवं विद्वान् पुरुषकार या पुरुषार्थ अर्थ को ही पंच समवाय में समाविष्ट करते हैं, पुरुषवाद अर्थात् सृष्टिकर्ता पुरुष को नहीं । पुरुषकारणता : पुरुषवाद, ईश्वरवाद एवं पुरुषार्थ के रूप में सन्मतितर्क के रचयिता सिद्धसेनसूरि ने तो गाथा में 'पुरिस' शब्द दिया है, जो पुरुष की कारणता को प्रकट करता है। पुरुष की कारणता दो प्रकार से हो सकती है १. पुरुष ( परम पुरुष) को सर्जनकर्ता मानने से। २. पुरुष ( जीवात्मा) को कर्ता मानने से । अभयदेवसूरि, यशोविजय आदि आचार्यों ने पुरुष की कारणता का सृष्टिकर्ता के रूप में उल्लेख तत्कालीन प्रचलित मान्यता का निरूपण करने की दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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