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षष्ठ अध्याय
पुरुषवाद और पुरुषकार
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उत्थापनिका
सन्मतितर्क में सिद्धसेन सूरि (५वीं शती) द्वारा काल, स्वभाव, नियति और पूर्वकृत कर्म के साथ 'पुरुष' को भी कारण रूप में प्रतिपादित किया गया है, यथा
कालो सहाव णियई पुवकयं पुरिस कारणेगंता।
मिच्छत्तं ते चेव उ, समासओ होति सम्मत्तं।।
गाथा में 'पुरिसे' शब्द प्रयुक्त हुआ है जो 'पुरुष' का वाचक है। अतः इस गाथा के अन्य शब्दों 'कालो', 'सहाव', 'णियई' एवं 'पुव्वकय' के आधार पर जिस प्रकार क्रमश: कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद एवं पूर्वकृतवाद (कर्मवाद) फलित हुए हैं उसी प्रकार 'पुरिस' शब्द से 'पुरुषवाद' फलित होता है।
भारतीय वाङ्मय एवं विशेषत: जैन वाङ्मय का अवलोकन करने पर विदित होता है कि इस 'पुरुष' शब्द ने पुरुषार्थ तक की लम्बी यात्रा तय की है। कारण-कार्य सिद्धान्त के संदर्भ में यह 'पुरुष' शब्द दो प्रकार के भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है- १. सृष्टिकर्ता पुरुष के अर्थ में २. पुरुषकार या पुरुषार्थ के अर्थ में। इनमें प्रथम अर्थ में प्रयुक्त 'पुरुष' शब्द केवल परम पुरुष के अर्थ तक सीमित नहीं रहा, अपितु उसका 'ब्रह्म' एवं 'ईश्वर' के अर्थ में भी विकास हुआ। अत: 'पुरुष' की कारणता की चर्चा करते समय इस अध्याय में ब्रह्म एवं ईश्वर की कारणता की चर्चा भी प्रसंगतः की जाएगी। साथ ही पुरुषकार या पुरुषार्थ पर भी विशद प्रकाश डाला जाएगा, क्योंकि जैन दार्शनिकों ने आगे चलकर प्रधानतया 'पुरिस' शब्द का पुरुषकार या पुरुषार्थ अर्थ ही अंगीकार किया है। संक्षेप मेंपुरुषवाद से पुरुषार्थवाद तक
यद्यपि सिद्धसेन विरचित 'सन्मतितर्क' की गाथा में 'पुरुष' शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु व्याख्याकारों ने उसके भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण किए हैं। सन्मतितर्क के टीकाकार अभयदेवसूरि (१०वीं शती) ने 'पुरुषवाद' अर्थ ग्रहण किया है। वे अपनी
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