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________________ ४५४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण २९४. पंचास्तिकाय, गाथा १३३ २९५. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ३१३ २९६. अमर भारती, नवम्बर १९६५, पृ. ११-१२, उद्धृत जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ३१३ २९७. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. ३१३ २९८. पापं कर्म कृतं किंचिद् यदि तस्मिन् न दृश्यते। नृपते तस्य पुत्रेषु पौत्रेष्वपि च नप्तृषु।। -महाभारत, शान्ति पर्व, अध्याय १३९.२२ २९९. बौद्ध धर्म दर्शन, पृ. २७७ उद्धृत 'जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. ३१६ ३००. भगवती सूत्र १.२.२ ३०१. संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्म। कम्मस्स ते तस्स उ वेय-काले, न बंधवा बंधवयं उवेन्ति।। न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा। एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्म।। माया पिया ण्हुसा भाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा। नालं ते मम ताणाय, लुप्तस्स सकम्मुणा।। -उत्तराध्ययन ४.४.,१३.२३, ६.३ ३०२. जैन कर्मसिद्धान्त का उद्भव एवं विकास, पृ. १८९ ३०३. जैन कर्मसिद्धान्त का उद्भव एंव विकास, पृ. १८९ ३०४. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. ३१८ ३०५. मिच्छे सासण मीसे अविरय देसे पमत्त अपमत्ते। नियट्टि अनियट्टि सुहुमु वसम खीण सजोमि अजोगिगुणा।। __ -कर्मग्रन्थ, भाग २, श्लोक २ ३०६. गइइंदिए य काये जोए वेए कसायनाणेसु। संजमदंसणलेसा भवसम्मे संनिआहारे।। -कर्मग्रन्थ, भाग ४, श्लोक ९ ३०७. जैन कर्म सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास, पृ. १५७-१७२ ३०८. पंचाध्यायी, २.४५ उद्धृत जैन कर्म सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास, पृ. १९३ ३०९. कर्मवाद : एक अध्ययन; सुरेश मुनि शास्त्री, श्री सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, १९६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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