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________________ पूर्वकृत कर्मवाद ४२७ कर्म तादृशं फलमश्नुते १६° महाभारत में धर्मानुकूल आचरण को पुण्य तथा उससे प्रतिकूल आचरण को पाप की संज्ञा दी गई है। मनुष्य की मृत्यु को भी कर्माधीन निरूपित किया गया है। मृत्यु के पश्चात् जीव की गति उनके अपने-अपने कर्मों के अनुसार प्रतिपादित की गई है। पूर्वजन्म या पुनर्जन्म की मान्यता को भी महाभारत में स्थान दिया गया है। भगवद् गीता में कर्म संबंधी मान्यताओं को सहज ढंग से विवेचित एवं विश्लेषित किया गया है। गीता का कथन है कि फलेच्छा की आसक्ति रखने वाला पुरुष सदा कर्मों से बंधता है और अनासक्त भाव से कर्म करने वाला पुरुष नैष्ठिक शान्ति को प्राप्त करता है। गीता में मनुष्य को स्वतंत्र रूप से कर्म करने का अधिकारी तो माना गया है किन्तु फल को ईश्वराधीन बताया गया है। 'वासांसि जीर्णानि यथाविहाय ६१ श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धान्त को पुष्ट करता है। संस्कृत साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों में दैव, भाग्य या कर्म सिद्धान्त की पुष्टि हुई है। शुक्रनीति में पूर्वजन्म में किये हुए कर्म को भाग्य और इस जन्म में किये जाने कर्म को पुरुषार्थ कहा है।२६२ स्वप्नवासवदत्त में 'कालक्रमेण जगतः परिवर्तमाना चक्रारपंक्तिरिव गच्छति भाग्यपंक्ति: १६३ तथा मेघदूत में 'नीचैर्गच्छत्युपरि च दशाचक्रनेमिक्रमेण ६४ वाक्य पूर्वकृत कर्म रूपी भाग्य की पुष्टि करते हैं। पंचतन्त्र हितोपदेश और नीतिशतक भी दैव या पूर्वकृत कर्म के सिद्धान्त के पोषक हैं। हितोपदेश में पूर्वजन्म में कृत कर्म को दैव कहा गया है- 'पूर्वजन्मकृतं कर्म तत् दैवमिति कथ्यते १६५ वहाँ सम्पत्ति और विपत्ति का कारण भी दैव को प्रतिपादित किया गया है।६६ नीतिशतक में समस्त सृष्टि के संचालन को कर्म के अधीन प्रतिपादित करते हुए कर्म को नमन किया गया है- 'नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति।२६७ योगवासिष्ठ में दैव और पुरुषार्थ की विस्तृत चर्चा है। पुरुषार्थ द्वारा फल की प्राप्ति को दैव स्वीकार किया गया है। वहाँ पुरुषार्थ को ही दैव रूप में परिणत माना गया है तथा दैव की अपेक्षा पुरुषार्थ की प्रबलता अंगीकार की गई है। न्यायदर्शन में कर्म को अदृष्ट के रूप में निरूपित किया गया है। सांख्य दर्शन में धर्म से ऊपर के लोकों में गमन तथा अधर्म से अधोलोक में गमन अंगीकार किया गया है। मीमांसा दर्शन में प्रतिपादित अपूर्व सिद्धान्त को कर्म-सिद्धान्त का पर्याय कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन में कर्म को चैतसिक कहते हुए उसे चित्त के आश्रित माना गया है। कर्म के वहाँ मानसिक, वाचिक और कायिक तीन भेद अंगीकृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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