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४२८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
हैं, जिन्हें त्रिदण्ड भी कहा गया है। विशुद्धि मग्ग में कर्म से विपाक और विपाक से कर्म की उत्पत्ति कही गई है। कर्म से ही पुनर्भव और लोक की प्रवृत्ति स्वीकार की गई है । ३१८ वेदान्त दर्शन के अनुसार बंधन का मूल कारण अविद्या या अज्ञान है। योगदर्शन में अविद्या, अस्मिता, रागT- द्वेष और अभिनिवेश को क्लेश की संज्ञा देते हुए प्रतिपादित किया गया है कि क्लिष्ट वृत्ति से धर्माधर्म रूपी संस्कार पैदा होते हैं और ये संस्कार ही कर्म बंधन के हेतु हैं। योग सूत्र में जाति, आयु और भोग के रूप में कर्म विपाक की त्रिविधता निरूपित है।
भारतीय चिन्तन में तीन प्रकार के कर्म निरूपित हैं- १. संचित कर्म २. प्रारब्ध कर्म ३. क्रियमाण कर्म । पूर्वकृत कर्म का फल भोग प्रारब्ध कर्म कहलाता है। वर्तमान में पुरुषार्थ के रूप में जो किया जा रहा है वह क्रियमाण कर्म है। तथा पूर्वजन्म में कृत कर्म संचित कहलाते हैं।
कर्म - सिद्धान्त का सबसे अधिक व्यवस्थित निरूपण जैन दर्शन में उपलब्ध है । यह जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है। कर्म सिद्धान्त या कर्मवाद से सम्बद्ध जैन दर्शन में विपुल साहित्य है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रज्ञापना सूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, स्थानांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि आगम साहित्य के अतिरिक्त कम्मपयडि, ६ कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम, कषायपाहुड़, गोम्मटसार आदि ग्रन्थ अपना अप्रतिम स्थान रखते हैं।
जैन दर्शन में कर्म - सिद्धान्त का जितना व्यवस्थित एवं व्यापक निरूपण उपलब्ध होता है उतना किसी अन्य दर्शन में नहीं। जैन मान्यतानुसार कर्मों के कारण ही जीव संसार में परिभ्रमण करता है। कर्मों का पूर्ण क्षय ही मोक्ष का स्वरूप है। जैनदर्शन में आठ कर्म प्रतिपादित है- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय । इन आठ कर्मों का स्वरूप इनके बंध के हेतुओं आदि का जैन साहित्य में विशद प्रतिपादन हुआ है। कर्म के बंधन में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग की भूमिका स्वीकार की गई है। इन पाँच बन्ध हेतुओं में भी योग और कषाय को अधिक महत्त्व दिया गया है।
बन्ध के चार प्रकार हैं- प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध और प्रदेश बंध। कर्म के स्वभाव को प्रकृति, उसकी फल प्रदान करने की अवधि को स्थिति, फलदान शक्ति को अनुभाग और बद्ध कर्म - पुद्गल परिमाण को प्रदेश बंध के रूप में मान्य किया गया है।
कर्म सिद्धान्त के संबंध में विशेषावश्यक भाष्य एवं विभिन्न ग्रन्थों के आधार पर इस अध्याय में जो चर्चा की गई है, उसमें से कतिपय बिन्दु निष्कर्षतः इस प्रकार हैं
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