SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 487
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण निष्कर्ष पूर्वकृत कर्मवाद के अनुसार जीव के द्वारा किये गए कमों का ही फल सुख-दुःख आदि के रूप में प्राप्त होता है तथा यही जगत् की विचित्रता का कारण है। अपने-अपने कृत कर्मों के कारण ही जीव विभिन्न योनियों में परिभ्रमण करते हैं तथा कर्मों की भिन्नता के आधार पर भिन्न-भिन्न शरीर ग्रहण करके अपने कृत कर्मों का फल भोग करते हैं। भारतीय चिन्तन में कर्मवाद की जड़े भी गहरी हैं। वैदिक वाङ्मय तथा बौद्ध और जैन ग्रन्थ इसके साक्षी हैं। कर्मवाद का प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थ जैन दर्शन में स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध है। किन्तु एकान्त कर्मवाद के पोषक ग्रन्थ न तो प्राप्त होते हैं और न ही उनका उल्लेख मिलता है। जैन दार्शनिकों ने पंच समवाय का प्रतिपादन करते हुए पूर्वकृत कर्मवाद को तो अंगीकार किया है किन्तु उसकी एकान्त कारणता का प्रतिषेध भी किया है। वैदिक संहिताओं में शुभ-अशुभ कर्मों को व्यक्त करने वाले शुभस्पतिः, धियस्पतिः, विचर्षणिः, विश्वचर्षणिः, विश्वस्य कर्मणो धर्ता आदि शब्दों एवं वाक्यों का प्रयोग हुआ है। यज्ञादि कर्मों का यजुर्वेद में अनेक प्रकार से विधान है। कुछ मंत्रों में यह स्पष्ट निरूपण है कि शुभ कर्म को करने से अमरत्व की प्राप्ति होती है। ऋग्वेद के मंत्रों में पूर्वकृत कर्म का स्पष्ट प्रतिपादन नहीं है किन्तु महर्षि दयानन्द सरस्वती ने एक मंत्र की व्याख्या करते हुए ईश्वर को पूर्वकृत कर्मों का फल प्रदाता बताया है। उपनिषदों में कर्मवाद पर दार्शनिक चिन्तन उपलब्ध है। बृहदारण्यकोपनिषद्, कठोपनिषद्, तैत्तिरीयोपनिषद् ऐतरेयोपनिषद्, छान्दोग्योपनिषद् आदि उपनिषदों में कर्म के अनुसार फल प्राप्ति की पुष्टि करने वाले वाक्य समुपलब्ध हैं। संन्यासोपनिषद् में कहा गया है- 'कर्मणा मध्याते जन्तुर्विद्याया च विमुच्यते २५८ अर्थात् कर्म से जीव बंधन को प्राप्त होता है तथा विद्या से मुक्ति को प्राप्त करता है। ब्रह्मबिन्दूपनिषद् में मन को बंधन एवं मोक्ष का कारण निरूपित किया गया है- 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः। ५९ उपनिषद् वाङ्मय में कर्म के बंधन पुनर्जन्म और मोक्ष आदि का सम्यक् प्रतिपादन है। पुराणों में दो प्रकार के कर्म निरूपित हैं। एक वे जो बंधन के हेतु हैं तथा दूसरे वे जो बंधन के हेतु नहीं हैं। पुराणों में पूर्वकृत कर्म का दैव या भाग्य के रूप में निरूपण है। आदिकाव्य रामायण में कर्म सिद्धान्त पूर्णतः स्थापित है- 'यादशं कुरुते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy