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________________ ४२२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण २. सुख-दुःख के रूप में जगत् भोग्य होने से कर्मकृत जगत् की सिद्धि- कर्मवादियों के मत में- “जीवों का पूर्वार्जित कर्म ही जगत का उत्पादक होता है" इस संबंध में हरिभद्रसूरि का निम्नांकित तर्क महत्त्वपूर्ण है भोग्यं च विश्वं सत्त्वानां विधिना तेन तेन यत्। दृश्यतेऽध्यक्षमेवेदं तस्मात् तत्कर्मजं हि तत्।।३४० इस तर्क का अभिप्राय यह है कि यह जगत् सुख-दुःख आदि को उत्पन्न करके ही जीवों का भोग्य होता है। जिसका अनुभव प्राणिमात्र करता है। चूंकि सुखदुःख कर्मजन्य होते हैं, अत: जगत् भोक्ता के कर्मों से ही उत्पन्न होता है। इस संदर्भ में यशोविजय ने कहा- 'जगद्धेतत्वं कर्मण्येव, इतरेषां पराभिमतहेतूनां व्यभिचारित्वादिति भावः ४१ अर्थात् जगत् की कारणता जीव के कर्मों में ही है, कारण कि अन्य वादियों द्वारा बताए गए कारण व्यभिचरित हो जाते हैं, क्योंकि उन कारणों के रहने पर भी कभी कार्य नहीं होता और कभी उनके अभाव में भी कार्य हो जाता है। इस प्रकार कर्मवादी का मत युक्तिसिद्ध है। ३. भोक्ता के अनुकूल कर्म के अभाव में मूंगपाक अशक्य- संसार में भोग्य पदार्थ कर्ता या भोक्ता के अनुकूल (पूर्वकृत कर्म) अदृष्ट के अभाव में उपलब्ध नहीं होते। क्योंकि दृष्ट कारण अदृष्ट के माध्यम से प्रकट होते हैं। इसलिए कर्मवाद में दृष्ट कारण को महत्त्व न देकर अदृष्ट कारण को ही सभी कार्यों का जनक कहा है। इसे उदाहरण के द्वारा समझाते हुए हरिभद्र लिखते हैं न च तत्कर्मवैधुर्ये मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते। स्थाल्यादिभंगभावेन यत् क्वचिन्नोपपाते।।२४२ भोक्ता के अदृष्ट के अभाव में मूंग का पाक भी होता नहीं दिखता, क्योंकि कई बार मनुष्य जब मूंग पकाने लगता है तो पाकपात्र आदि का अकस्मात् भंग हो जाने से मूंग का पाक नहीं हो पाता। यहाँ पाकपात्र आदि दृष्ट कारण का अभाव होने से पाक नहीं हुआ, यह कहना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि दृष्ट कारण का अभाव किसी निमित्त से ही होगा और उसका जो निमित्त होगा वह कोई दृष्ट निमित्त प्रमाण सिद्ध न होने से अदृष्ट रूप ही होगा। अत: अदृष्ट को ही मुंग पाक आदि कार्य के अभाव का प्रयोजक मान लेना उचित है। कहा भी गया है- 'तद्धेतोरेवाऽस्तु किं तेन' अर्थात् जो कार्य अपने हेतु के हेतु से उत्पन्न होता है, उसी को ही हेतु माना जाय, दूसरे को क्यों माना जाय? इस न्याय से कार्य को साक्षात् अदृष्ट से उत्पन्न मानने पर कहीं भी दृष्ट कारण की अपेक्षा नहीं होगी।३४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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