________________
पूर्वकृत कर्मवाद ४२१ आया है तो फिर कर्म से कर्म का आना कैसे कहा जाएगा। जिस प्रकार उत्क्षेपण कर्म बिना कर्ता के संभव नहीं है उसी प्रकार कर्म मात्र का कर्ता आत्मा को मानना होगा।
६. आत्मा और कर्म में अन्योन्यभाव- आत्मा और कर्म में परिणाम्य और परिणामक भाव होने के कारण एकत्व है। आत्मा में वैसा सामर्थ्य होने से वह पुद्गलों को गति, जाति आदि के रूप में परिणमन करता है तथा पुद्गल भी आत्मा को मिथ्यादर्शन आदि के कारण परिणमित करते हैं। अन्योन्य परिणामकता एवं परिणाम्य के कारण इनमें अनादि से एकता है।३३७ आत्मा और कर्म परस्पर एक दूसरे के कारण बनते हैं, अत: एकान्त कर्मवाद सिद्ध नहीं होता।
७. ज्ञान भी कर्मजन्य नही- रूप आदि को पुद्गल का स्वरूप माना जाता है, किन्तु ज्ञान दर्शन रूप उपयोग के बिना उनकी उपलब्धि नहीं होती और जो उपयोग स्वरूप मति आदि ज्ञान हैं, उनमें भी रूपादि का ज्ञान करने के कारण उनमें पुद्गलात्मकता पाई जाती है। इस प्रकार एक मात्र कर्म को कारण मानना उचित नहीं है। शास्त्रवार्ता समुच्चय एवं उसकी टीका में कर्मवाद का निरसन
आठवीं शती के हरिभद्रसूरि ने कालवाद, स्वभाववाद और नियतिवाद के पश्चात् कर्मवाद का युक्तियुक्त प्रतिपादन किया है। कर्मवाद के पक्ष में विभिन्न युक्तियाँ दी हैं, वे इस प्रकार हैं१. भोग्य पदार्थ की सिद्धि से कर्म की सिद्धि
न भोक्तृव्यतिरेकेण भोग्यं जगति विद्यते। न चाकृतस्य भोक्ता स्यान्मुक्तानां भोगभवतः।।२९
संसार में भोगने योग्य वस्तुएँ भोग करने वाले भोक्ता के लिए होती है। इनका अस्तित्व भोक्ता पर निर्भर होता है, क्योंकि 'भोग्यणदस्य ससंबन्धिकत्वात्' अर्थात् 'भोग्य' पद संबंधिसापेक्ष हैं। अत: भोक्तारूप संबंधी के अभाव में उसका अस्तित्व नहीं हो सकता। भोक्ता के लिए भी नियम है कि वह अकृत कर्म का भोग नहीं कर सकता, क्योंकि 'स्वव्यापारजन्यस्यैव स्वभोग्यत्वदर्शनात्' जो जिसके व्यापार से उत्पन्न होता है वही उसका भोग्य होता है। यह नियम स्वीकार नहीं किया जाय तो मुक्त पुरुषों में भी भोग की आपत्ति होगी। इस प्रकार भोक्ता को भोग्य पदार्थ स्वकृत कर्मानुसार ही मिलते हैं। अतः भोग्य पदार्थ की प्राप्ति से पुरुष के कर्मों की सिद्धि स्वत: हो जाती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org