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जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण तदूयतिरिक्तेन कर्त्रेत्युक्तं प्राग् दृष्टान्ते व्रीहिणैव व्रीहिः कार्येण बीजव्रीहिणा कार्योऽकुंरव्रीहिः क्रियत इत्युक्तं '३३० अर्थात् कर्म के द्वारा ही कर्म किया जाता है, कर्म से भिन्न कर्ता के द्वारा कर्म नहीं किया जाता। जैसे कि ब्रीहि के द्वारा ही ब्रीहि उत्पन्न होता है अर्थात् कार्य स्वरूप बीज ब्रीहि के द्वारा अंकुर व्रीहि रूप कार्य उत्पन्न होता है। इसलिए कर्म से ही कर्म उत्पन्न होता है कर्ता को मानने की आवश्यकता नहीं है।
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समाधान प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि ब्रीहि से ब्रीहि उत्पन्न होने का जो दृष्टान्त दिया गया है, वह सम्यक् नहीं है क्योंकि ब्रीहि उत्पन्न होने के लिए पृथ्वी, जल, आकाश, वायु आदि की आवश्यकता होती है; जो ब्रीहि से पृथक् भूत कर्ता को माने बिना संभव नहीं है। इसलिए आपका दृष्टान्त विपरीत साध्य का ही साधक है। ३३१
दूसरी बात यह है कि 'कर्तुरीप्सिततमं कर्म' लक्षण से जो कर्म का स्वरूप प्रकट होता है, उससे कर्म के निर्विवाद रूप से कृतक होने के कारण वह कर्ता का ही कार्य सिद्ध होता है और वह कर्ता पुरुष या आत्मा है। उस कर्ता आत्मा में कर्म से करने की शक्ति आती है।
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३. कर्म पुरुष 'के आश्रित - कर्म-शक्ति की स्वतंत्रता का अपना कोई स्वरूप नहीं है । यथा - " न हि स क्रियमाणः, कर्मणोऽस्वतंत्रत्वे सति अलब्धात्मवृत्तित्वादभवनमाभूतदेवदत्तवत्' जिस प्रकार उत्पन्न होने वाला देवदत्त गर्भावस्था में अस्वतंत्र होता है, इसलिए वह वहाँ अकर्ता है; उसी प्रकार क्रियमाण कर्म भी स्वतंत्र नहीं रह सकता । उत्पन्न होने वाले अथवा क्रियमाण कर्म को पृथग्भूत पुरुष या आत्मा का आश्रय लेना होता है।
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४. शास्त्र की व्यर्थता का प्रसंग- एकान्त कर्मवाद के खण्डन में आचार्य सिंहसूरि तर्क देते है- 'किंचान्यत्, पुरुषकारप्रत्याख्याने सर्वशास्त्रवैयर्थ्यप्रसंग: पुरुषकार या आत्मवाद का प्रत्याख्यान करने पर तो समस्त शास्त्र की व्यर्थता का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा। पुरुषार्थ हेतु प्रेरित करने वाली उपदेशादि क्रिया भी तब व्यर्थ हो जाएगी क्योंकि फिर तो कर्म से ही प्रवृत्ति माननी होगी।
५. कर्म की प्रवृत्ति का कर्ता आत्मा- कर्मवादी के अनुसार कर्म की प्रवृत्ति मात्र से ही शास्त्र के अर्थ एवं उपदेशादि की क्रियाएँ सम्पन्न हो जाएगी। ये सभी क्रियाएँ प्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति में कर्म से ही होती है । २३५ इस कारण की ऐकान्तिकता संस्तुत्य नहीं है, क्योंकि 'अथ तदादिकर्म कुतः ? ब्रूयास्त्वम्-ओं पुरुषादेवेति । कर्मत एव न, ब्रीहिवैधर्म्येणाकर्तृकत्वात्, आत्मादिवत्, नोत्क्षेपणवत्' ३६ आदि में कर्म कहाँ से आया? यदि कर्मवादी कहेंगे कि पुरुष से
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