SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वकृत कर्मवाद ४२३ ४. आकस्मिक धन-लाभ आदि में अदृष्ट कर्म ही कारण- कभी-कभी बिना किसी प्रयत्न के ही मनुष्य को विपुल धन की प्राप्ति हो जाती है। इसमें दृष्ट कारण का अभाव है फिर भी धन-प्राप्ति हो रही है। अत: दृष्ट पदार्थों में यदि कहीं किसी कार्य के प्रति कारणत्व का व्यवहार होता है तो इसलिए नहीं कि दृष्ट पदार्थ सचमुच कारण है किन्तु वह व्यवहार इसलिए होता है कि कार्य की उत्पत्ति के पूर्व उनका सन्निधान अवर्जनीय होता है। उनका अवर्जनीय सन्निधान अदृष्ट के कारण स्वरूप होता है। अत: यह स्वीकार किया जा सकता है कि दृष्ट कारण अदृष्ट के व्यंजक होते हैं न कि कार्य के वास्तविक कारण। कार्य का वास्तविक कारण तो अदृष्ट ही होता है।३४४ इसी तरह जो हमें आकस्मिक धनलाभ की प्राप्ति होती है, उसमें वास्तविक कारण अदृष्ट है। बाह्य कारण अनिवार्य सन्निधान के रूप में उपस्थित रहते है। इस संबंध में प्रसिद्ध श्लोक निम्न है यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः फलं निधानस्थमिवाऽवतिष्ठते। तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्याता प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते।।३४५ अर्थात् कोष में धन के समान पूर्वकृत कर्म का फल पहले से ही विद्यमान रहता है। वह जिस-जिस रूप से अवस्थित रहता है उस उस रूप में उसे सुलभ करने के लिए मनुष्य की बुद्धि सतत उद्यत रहती है और उसी उसी प्रकार से उसे प्राप्त करने के लिए मानों हाथ में दीप लिये आगे-आगे चलती है। ५. काल भी कर्म की ही विशेष अवस्था- काल-विपाक होने पर ही मनुष्य को भोग्य सामग्री उपलब्ध होती है। ऐसा मानने पर कर्मवाद में कालवाद के प्रवेश की शंका उपस्थित हो जाती है। इसके निवारणार्थ यशोविजय तर्क देते हैं- 'तस्य कर्मावस्थाविशेषरूपत्वात् १६ अर्थात् काल भी कर्म की एक विशेष अवस्था ही है। काल के कर्म का अंगभूत होने से कालवाद के प्रवेश की आशंका बेबुनियाद है। ६. भोग्य पदार्थों की भिन्नता में कर्म की भिन्नता कारण- भोग्य पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं। इसलिए उनके कारण रूप कर्म भी भिन्न-भिन्न हैं। यदि कर्म को भिन्न-भिन्न नहीं मानेंगे तो भोग्यों की भिन्नता नहीं हो सकेगी। कहीं वह कर्म रूप कारण उद्भूत होता है और कहीं अनुद्भूत। न्याय-वैशेषिकों ने भी शालि, यव आदि के बीजों के नष्ट होने पर उनको परमाणु रूप में स्वीकार किया है। परमाणु में शालित्व, यवत्व आदि का भेद दिखाई नहीं पड़ता, तथापि उन्होंने अदृष्ट के द्वारा ही परमाणुभूत शालिबीजों से शालि अंकुरों की तथा परमाणुभूत यव-बीजों से यवांकुरों की उत्पत्ति स्वीकार की है।३४८ इसलिए कार्य की भिन्नता में कर्म या कारण की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy