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४१६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण जैन कर्म सिद्धान्त संबंधी साहित्य
सभी भारतीय दर्शन किसी न किसी रूप में कर्मवाद को स्वीकार करते हैं। कर्मवाद संबंधी सिद्धान्तों के निरूपण में जैन आचार्यों का अपना मौलिक योगदान रहा है। इस सिद्धान्त का विशिष्ट निरूपण जैनाचायों द्वारा रचित जैनकर्मसिद्धान्त संबंधी साहित्य में प्राप्त होता है। कर्मवाद का सामान्य विवेचन तो प्राय: जैन आगमिक तथा दार्शनिक ग्रन्थों एवं जैन कथा साहित्य में मिलता है, किन्तु विशेष विवेचन कर्म संबंधी विशाल साहित्य में मिलता है।
जैन परम्परा दो भागो में विभक्त है- श्वेताम्बर और दिगम्बर। दोनों ही परम्पराओं में कर्म-संबंधी साहित्य का सर्जन हुआ है। श्वेताम्बर परम्परा में
आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण तथा विपाक सूत्र इत्यादि में कर्मसिद्धान्त के यत्र-तत्र बिखरे हुए विवरण उपलब्ध होते हैं, जबकि स्थानांग, समवायांग, भगवती, प्रज्ञापना एवं उत्तराध्ययन में इसके सुव्यवस्थित एवं बहुविस्तृत विवरण उपलब्ध होते हैं।
स्थानांग सूत्र में बंधन के चार प्रकारों-प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बंध एवं प्रदेश बंध की चर्चा है।३१६ बंध, उदय, उदीरणा, उपशमन, निधत्ति आदि का भी उल्लेख सम्प्राप्त होता है। इस प्रकार स्थानांग में आचारांग और सूत्रकृतांग की अपेक्षा जैन कर्म-सिद्धान्त का विकसित रूप परिलक्षित होता है। समवायांग सूत्र में ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयु, नाम और अन्तराय इन पाँच कर्मों की क्रमश: ५, २, ४, ४२ और ५ इस प्रकार ५८ उत्तरप्रकृतियों की चर्चा है। भगवती सूत्र में यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार के कर्मों का अपवर्तन, संक्रमण, निधत्ति, निकाचना आदि सम्भव है। इस आगम में मोहनीय कर्म तथा उसके बंधन, उदय एवं उदीरणा आदि से संबंधित तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है।
उपासकदशांग, अन्तकृतदशांग तथा अनुत्तरौपपातिक आदि अंगसूत्रों में कर्म विषयक कोई चर्चा नहीं है। उपांग साहित्य में प्रज्ञापना और जीवाभिगम के कुछ अंश को छोड़कर शेष उपांगों में कर्मसिद्धान्त से संबंधित सामग्री का अभाव ही दृष्टिगोचर होता है। प्रज्ञापना में कर्मसिद्धान्त का सुनियोजित, सुविस्तृत एवं सुस्पष्ट विवरण मिलता है। मूलसूत्र उत्तराध्ययन सूत्र में मुख्य रूप से कर्म की आठ मूल प्रकृतियों एवं उनकी अधिकांश उत्तरप्रकृतियों के नामोल्लेख मिलते हैं। श्वेताम्बर आगम-साहित्य के तीन मूलसूत्रों, छेदसूत्र, चूलिकासूत्र एवं प्रकीर्णकों में कर्मसिद्धान्त का कोई विकसित स्वरूप परिलक्षित नहीं होता।
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