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________________ पूर्वकृत कर्मवाद ४१५ आदि का एक लोथड़ा समझ लेता है तब उसके राग का स्रोत इतना सूख जाता है और विरागी भावनाओं की वृद्धि होने से आत्मा के साथ सम्बद्ध पूर्व रागादि का समूल उच्छेद हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी अनादि कर्म संबंध का अन्त करने की बात कही है "खवित्ता पुवकम्माई संजमेण तवेण या जयघोस-विजय घोसा, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं।। २९५ संयम एवं तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों को क्षीण कर अनुत्तर सिद्धि प्राप्त की जा सकती है और अपनी कालावधि पूर्ण होने पर आत्मा से अलग हो जाता है। इस प्रकार आत्मा से नये कर्मों के सम्बद्ध होने एवं पुराने कर्मों के बिछुड़ने की परम्परा चलती रहती है। जैन दर्शन में कर्म और आत्मा के संबंध को अनादि कहने का अभिप्राय यह है कि कर्म का प्रवाह अर्थात् कर्म और आत्मा के संबंध की परम्परा अनादि है, न कि किसी कर्म विशेष का आत्मा के साथ अनादि संबंध है। क्योंकि पुराने कर्म अपनीअपनी स्थिति पूर्ण होने पर आत्मा से अलग होते रहते हैं और नए-नए कर्म बंधते रहते हैं। आत्मा से पुराने कर्मों के अलग होने को जैन संस्कृति की मूल भाषा में 'निर्जरा' और आत्मा के साथ नवीन कर्मों के संबंध हो जाने को बंध कहते हैं। किसी विशेष कर्म का आत्मा के साथ अनादि-काल से सम्बन्ध चला आ रहा हो- जैन संस्कृति के कर्म-सिद्धान्त का यह मन्तव्य कदापि नहीं है। भिन्न-भिन्न कर्मों के संयोग का प्रवाह अनादिकालीन है, न कि किसी एक कर्म विशेष का। अत: कर्म विशेष का संबंध सादि और सान्त होता है। कर्म और पुनर्जन्म पुनर्जन्म का अर्थ है- वर्तमान जीवन के पश्चात् का परलोक जीवन। परलोक जीवन का मुख्य आधार पूर्वकृत कर्म है। अतीत कर्मों का फल हमारा वर्तमान जीवन है और वर्तमान कर्मों का फल हमारा भावी जीवन है। कर्म और पुनर्जन्म का अविच्छेद्य संबंध है। कर्म की सत्ता स्वीकार करने पर उसके फलरूप परलोक या पुनर्जन्म की सत्ता भी स्वीकार करनी पड़ती है। जिन कर्मों का फल वर्तमान भव में प्राप्त नहीं होता उन कर्मों के भोग के लिए पुनर्जन्म मानना आवश्यक है। पुनर्जन्म और पूर्वभव न माना जाएगा तो कृतकर्म का निर्हेतुक विनाश और अकृतकर्म का भोग मानना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में कर्म-व्यवस्था दूषित हो जाएगी। इन दोषों के परिहार हेतु ही कर्मवादियों ने पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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