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४१४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
कत्थवि बलिओ जीवो, कत्थवि कम्माइ हुन्ति बलियाई । जीवस्स य कम्मस्स य, पुव्वविरुद्धाइं वेराई ।।
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कहीं आत्मा बलवान है और कहीं कर्म बलवान है। कभी जीव, काल आदि लब्धियों की अनुकूलता होने पर कर्मों को पछाड़ देता है और कभी कर्मों की बहुलता होने पर जीव उनसे दब जाता है।
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इस संबंध में कर्म - सिद्धान्त के मर्मज्ञ आचार्यों ने उत्तर दिया है कि ऊपर से देखने पर कर्म की शक्ति बलवती दिखाई देती है, किन्तु आत्मा की ही शक्ति अधिक बलवती है। बहिर्दृष्टि से पत्थर कठिन कठोर प्रतीत होता है और अन्तर्दृष्टि से पानी | इसीलिए पहाड़ों पर बरसने वाली पानी की नन्हीं-नन्हीं बूंदे विशाल एवं कठोर चट्टानों में भी छेद डालकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालती हैं। वे टुकड़े कंकर और कंकर अन्ततः रेत बन जाती हैं। देखने में लोहा पानी से कठोर प्रतीत होता है। पर पानी में डाले गये लोहे को जंग लग जाता है। इसी तरह स्थूल दृष्टि से कर्म बलवान प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में आत्मा ही बलवान है। आगमकार के शब्दों में
खवित्ता एवं कम्माई, संजमेण तवेण टा
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सव्वदुक्खपहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो ।।
अर्थात् संयम और तप के द्वारा पूर्व कर्मों को क्षीण कर, उन्हें महर्षि गण समस्त दुःखों का अन्त कर देते हैं।
३. अनादि का अन्त कैसे ?
आत्मा के साथ कर्म का अनादि संबंध है तो उसका अन्त कैसे संभव है? क्योंकि जो अनादि होता है उसका नाश नहीं होता, जैसे आकाश का ।
पछाड़ कर
षड्दर्शनसमुच्चय में इसका प्रत्युत्तर दिया गया है- " यद्यपि रागादयो दोषा जन्तोरनादिमन्तः - तथापि कस्यचिद्यथावस्थितस्त्रीशरीरादिवस्तुतत्त्वावगमेन तेषां रागादीनां प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो दृश्यते । ततः संभाव्यते विशिष्टकालादिसामग्रीसद्भावे भावनाप्रकर्षतो निर्मूलमपि क्षयः निर्मूलक्षयानभ्युपगमेऽपचयस्याप्यसिद्धेः । १४
यद्यपि रागादि दोष (कर्म) अनादि काल से इस आत्मा के साथ है, फिर भी प्रतिपक्षी विरागी भावनाओं से इसका नाश होता है। उदाहरणार्थ किसी स्त्री में आसक्त कामी व्यक्ति जब स्त्री के शरीर को वास्तविक रूप में मल, मूत्र, माँस, हड्डी, रक्त
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