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पूर्वकृत कर्मवाद ४१३ कर्म पहले और आत्मा बाद में- इस मान्यता के अनुसार तो आत्मा भी एक उत्पन्न - विनष्ट होने वाला पदार्थ होगा और आत्मा का जन्म मानेंगे तो उसका मरण भी निश्चित ही मानना होगा। इस संबंध में सुरेश मुनि 'शास्त्री' कहते हैं कि- आत्मा के संबंध में यह जन्म-मरण, उत्पन्न- विनष्ट होने का विचार भारत के प्रायः सभी दर्शनों को एकदम अमान्य है। भारतीय दर्शनकारों की दृष्टि में आत्मा एक अजर, अमर, अविनाशी और शाश्वत तत्त्व है। ३९ वेदव्यास के इस स्वर से सभी दर्शनकार सहमत हैं
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। ३१०
ऐसी विषम स्थिति में न आत्मा पहले है और न ही कर्म पहले जैन संस्कृति के महान् विश्लेषकों ने "आत्मा और कर्म- इन दोनों में कौन पहले और कौन बाद में," इस कड़ी को अनादि कहकर तोड़ दिया। उनका कहना है कि आत्मा भी अनादि है, कर्म भी अनादि है और आत्मा - कर्म इन दोनों का संबंध भी अनादि है। आत्मा कार्मण शरीर के रूप में कर्मों से अनादिकाल से बंधा हुआ चला आ रहा है।
२. कर्म बलवान या आत्मा ?
एक तुला में रखी हुई समान आकार की वस्तु के सदृश कर्म और आत्मा का महत्त्व जैन दर्शन में प्रतिपादित हुआ है। इन दोनों में से किसे प्रधानता दी जाए यह चिन्तन का विषय है। जैन ग्रन्थों में कर्म की अपेक्षा आत्मा को ही बलवान माना गया है क्योंकि कर्म के साथ संबंध का भी मूल कारण आत्मा है। इस विचार को प्रमाण के रूप में स्थापित करने हेतु उत्तराध्ययन सूत्र के अंश प्रस्तुत किए जा रहे है
अप्पा गई वेटारणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा धेणू, अप्पा मे णंदणं वणं । । अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय- सुपट्टिओ ।।
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आत्मा ही वैतरणी नदी है, कूटशाल्मली वृक्ष है, कामदुग्धा धेनु है और वही नन्दन वन है। आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता है, भोक्ता है, सत्प्रवृत्तियों में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है एवं दुष्प्रवृत्तियों में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है।
गणधरवाद में कर्म और आत्मा की बलवत्ता के संबंध में संशयात्मक स्थिति इस प्रकार प्रस्तुत की गई है
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