________________
पूर्वकृत कर्मवाद ४१७ आगम के अतिरिक्त शिवशर्मसूरि रचित 'कम्मपयडि' और चन्द्रर्षिमहत्तर विरचित 'पंचसंग्रह' महत्त्वपूर्ण कर्मग्रन्थ है। कर्मविपाक, कर्मस्तव, बंधस्वामित्व, षडशीति शतक और सप्ततिका ये प्राचीन षट्कर्मग्रन्थ हैं। दिगम्बर परम्परा में
दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में षट्खण्डागम का अन्यतम स्थान है। इस ग्रन्थ के कर्ता आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि हैं। इसमें छ: खण्ड हैं- जीवस्थान, क्षुद्रकबंध, बन्धस्वामित्वविचय, वेदना, वर्गणा और महाबंध। कर्मसिद्धान्त के विभिन्न पक्षों से संबंधित विस्तृत विवरणों का एक स्थान पर संकलन षट्खण्डागम ग्रन्थ ही प्रस्तुत करता है। जैन कर्मसिद्धान्त में संबंधित शायद ही कोई ऐसा तथ्य होगा जो इस ग्रन्थ की पैनी दृष्टि से अछूता होगा।
षट्खण्डागम की तरह दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग से उत्पन्न कसायपाहुडसुत्त भी कर्मसिद्धान्त का व्याख्या ग्रन्थ है, जो आज लुप्त हो गया है। आचार्य नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार 'कर्मकाण्ड' में नौ विषयों का प्रतिपादन हुआ है- १. प्रकृतिसमुत्कीर्तन २. बन्धोदयसत्व ३. सत्त्वस्थानभंग ४. त्रिचूलिका ५. स्थानसमुत्कीर्तन ६. प्रत्यय ७. भाव-चूलिका ८. त्रिकरणचूलिका ९. कर्मस्थितिरचना। इन्हीं की रचना 'लब्धिसार' में कर्मबंधन से मुक्त होने के उपायों का विस्तृत विवेचन है। अमितगति कृत पंचसंग्रह में गद्यपद्यात्मक १४५६ श्लोक हैं। यह गोम्मटसार का संस्कृत रूपान्तर सा है।
दिगम्बर साहित्य में कर्म विषयक तथ्यों को सूक्ष्म, गूढ एवं गम्भीर शैली में वर्णित किया गया है, वहीं श्वेताम्बर साहित्य में कर्म-विषयक तथ्य अपेक्षाकृत सरल, सुबोध एवं सुगम शैली में निरूपित किए गए हैं। कर्म सिद्धान्त को एक सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने में दोनों ही परम्पराओं के ग्रन्थों का विशेष योगदान है।३९८ जैन वाङ्मय में एकान्त कर्मवाद एवं उसका खण्डन आचारांग सूत्र एवं उसकी शीलांक टीका में कर्मवाद
आचारांग सूत्र में आत्मवादी, लोकवादी आदि के साथ कर्मवादी को भी परिगणित किया गया है।३१९ शीलांकाचार्य ने इस सूत्र पर टीका करते हुए कर्मवादियों की मान्यता निम्न शब्दों में प्रस्तुत की है- "कर्म ज्ञानावरणीयादि तद् वदितुं शीलमस्य। कर्मणो जगद्वैचित्र्यवादिनि, यतो हि प्राणिनो मिथ्यात्वाविरति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org