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पूर्वकृत कर्मवाद
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कारण से जिस प्रकार कार्य का अनुमान होता है, उसी प्रकार कार्य से भी कारण का अनुमान होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार शरीर आदि कार्य मूर्त हैं तो उनका कारण कर्म भी मूर्त ही होना चाहिये ।
मूर्त कर्म से अमूर्त आत्मा का सम्बन्ध और प्रभाव
अमूर्त आत्मा और मूर्त कर्म दोनों अनादि हैं। कर्मसंतति का आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बन्ध है । प्रतिपल-प्रतिक्षण जीव नूतन कर्म बांधता है। ऐसा कोई भी क्षण नहीं, जिस समय सांसारिक जीव कर्म नहीं बांधता है । इस दृष्टि से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि है। आत्मा अमूर्त होते हुए भी कर्म के सम्पर्क से कथंचित् मूर्त भी है। इस दृष्टि से कर्म और आत्मा का परस्पर सम्बन्ध सम्भव है, क्योंकि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध न मानने पर कर्म सिद्धान्त का अस्तित्व नहीं रहता।
जिस प्रकार अमूर्त ज्ञानादि गुणों पर मूर्त मदिरादि का प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार अमूर्त जीव पर भी मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ता है । उपाध्याय अमरमुनि २९६ इसका युक्तियुक्त समाधान देते हुए कहते हैं कि कर्म के संबंध से आत्मा कथंचित् मूर्त भी है। क्योंकि संसारी आत्मा अनादिकाल से कर्म - सन्तति सम्बद्ध है, इस अपेक्षा से आत्मा सर्वथा अमूर्त नहीं है, अपितु कर्म-संबद्ध होने के कारण स्वरूपतः अमूर्त होते हुए भी वस्तुतः कथंचित् मूर्त है । इस दृष्टि से भी आत्मा पर मूर्त कर्म का उपघात, अनुग्रह और प्रभाव पड़ता है।
डॉ. सागरमल जी जैन भी 'मूर्त का अमूर्त पर प्रभाव' के संबंध में लिखते हैं कि जिस पर कर्म सिद्धान्त का नियम लागू होता है, वह व्यक्तित्व अमूर्त नहीं है। हमारा वर्तमान व्यक्तित्व शरीर (भौतिक) और आत्मा (अभौतिक) का एक विशिष्ट संयोग है। शरीरी आत्मा भौतिक तथ्यों से अप्रभावित नहीं रह सकता। जब तक आत्मा शरीर (कर्म शरीर) के बंधन से मुक्त नहीं हो जाती, तब तक वह अपने को भौतिक प्रभावों से पूर्णतया अप्रभावित नहीं रख सकती । मूर्त शरीर के माध्यम से उस पर मूर्त - कर्म का प्रभाव पड़ता है। है| २९७
कर्म-फल संविभाग नही
कर्म फल संविभाग यानी कर्मों के फल का विभाजन । कहने का तात्पर्य यह है कि एक व्यक्ति द्वारा किये गए कर्म का फल दूसरे व्यक्ति को मिल जाना ही कर्मफल संविभाग है। इसके संबंध में भारतीय दर्शन में भी चिन्तन उपलब्ध होता है। महाभारत और गीता में शुभ (पुण्य) एवं अशुभ (पाप) दोनों ही प्रकार के कर्मों का
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