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४०८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण इनके अतिरिक्त कर्म की शेष उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रम की भजना (विकल्प) है।२९१ जीव के साथ कर्म का वियोग सम्भव
___ग्यारहवें गणधर प्रभास के साथ चर्चा में भगवान ने फरमाया- “जीव तथा कर्म का संयोग आकाश के समान अनादि है, इसलिए जीव और आकाश के अनादि संयोग के समान जीव व कर्म के संयोग का भी नाश नहीं होता"-प्रभास के इस प्रश्न का समाधान देते हुए भगवान कहते हैं९२- ‘जीव में बन्ध सम्भव है, क्योंकि उसकी दान अथवा हिंसादि क्रिया फलयुक्त होती है। बन्ध का वियोग भी जीव में शक्य है, क्योंकि वह बन्ध संयोग रूप होता है। जिस प्रकार सुवर्ण तथा पाषाण का अनादि रूप योग भी संयोग है इसलिए किसी कारणवशात् उसका वियोग होता है; उसी प्रकार आत्मा के बन्ध रूप कर्म-संयोग का भी सम्यग्ज्ञान व क्रिया द्वारा नाश होता है।२९३ कर्म सिद्धान्त : कतिपय अन्य बिन्दु कर्म की मूर्तता के सम्बन्ध में विचार
जैन ग्रन्थों में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श युक्त पदार्थ को मूर्त कहा गया है। जैन दर्शन के धर्म, अधर्म, आकाश पुद्गल, काल और जीव; इन ६ द्रव्यों में पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुण होते हैं। जो इन गुणों से युक्त है उनमें मूर्तत्व है। चूंकि जैन दर्शन में कर्म को पुद्गलजन्य माना गया है अतः उसकी मूर्तता स्वतः सिद्ध है। मूर्तता के सम्बन्ध में कुन्दकुन्दाचार्य और डॉ. सागरमल जैन के निम्न तर्क हैं।
१. पंचास्तिकाय में मूर्त कर्म का समर्थन करते हुए कहते हैं
"जह्या कम्मरस फलं विसयं फासेहिं भुञ्जदे णियदं।
जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि।। १२९४
इन्द्रिय, विषय, स्पर्श आदि मूर्त हैं उनको भोगने वाली इन्द्रियाँ मूर्त हैं, उनसे होने वाले सुख-दुःख मूर्त हैं इसलिए उनके कारणभूत कर्म भी मूर्त हैं।
२. डॉ. सागरमल जैन का मन्तव्य है२९५ कि कर्म मूर्त है क्योंकि उसके सम्बन्ध से दुःख-सुख आदि का ज्ञान होता है जैसे- भोजन से। कर्म मूर्त है क्योंकि उसके सम्बन्ध से वेदना होती है, जैसे-अग्नि से। यदि कर्म अमूर्त होता तो उसके कारण सुख-दुःख की वेदना नहीं होती।
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