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पूर्वकृत कर्मवाद ४०७ कि जिसके कारण वह उक्त रीति से कर्म का परिणमन करते हुए ही कर्म का ग्रहण करता है।८६
आहार के समान होने पर भी परिणाम और आश्रय की विशेषता के कारण उसके विभिन्न परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं; जैसे कि गाय तथा सर्प को एक ही आहार देने पर भी गाय द्वारा खाया गया पदार्थ दूध रूप में परिणत होता है तथा सर्प द्वारा खाया गया विष रूप में। यहाँ पर जैसे खाद्य पदार्थ में भिन्न-भिन्न आश्रय में जाकर तद्-तद्रूप में परिणत होने का परिणाम स्वभाव विशेष है वैसे ही खाद्य का उपयोग करने वाले आश्रय में भी उन वस्तुओं को तत् तद्रूप में परिणत करने का सामर्थ्य विशेष है। इसी प्रकार कर्म में भी भिन्न-भिन्न शुभ या अशुभ अध्यवसाय वाले अपने आश्रय रूप जीव में जाकर शुभ या अशुभ रूप में परिणत हो जाने का सामर्थ्य है। आश्रय रूप जीव में भी भिन्न-भिन्न कर्मों का ग्रहण कर उन्हें शुभ या अशुभ रूप में अर्थात् पुण्य या पाप रूप में परिणत कर देने की शक्ति है।२८७
एक ही जीव कर्म के शुभ तथा अशुभ दोनों परिणामों को उत्पन्न करने में समर्थ होता है। यथा- एक ही शरीर में अविशिष्ट अर्थात् एक रूप आहार ग्रहण किया जाता है, फिर भी उसमें से सार और असार रूप दोनों परिणाम तत्काल हो जाते हैं। शरीर खाए हुए भोजन को रस, रक्त तथा माँस रूप सार तत्त्व में और मलमूत्र जैसे असार तत्त्व में परिणत कर देता है। इसी प्रकार एक ही जीव गृहीत साधारण कर्म को अपने शुभाशुभ परिणाम द्वारा पुण्य तथा पाप रूप में परिणत कर देता है।८८ - इसके बाद पुण्य और पाप प्रकृतियों की पृथक्-पृथक् गणना विशेषावश्यक भाष्य में विस्तार से की गई है।२८९ कर्म-संक्रम का नियम
कर्म की मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियों में परस्पर कर्म-संक्रमण के संबंध में विशेषावश्यक भाष्य में जो कहा गया है, वह इस प्रकार है- "मोत्तूणं आउयं खलु देसणमोहं चरित्तमोहं च। सेसाणं पगईणं उत्तरविहिसंकमो भज्जो' २९० ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र तथा अन्तराय- इन आठ मूल कर्म-प्रकृतियों में तो परस्पर संक्रम हो ही नहीं सकता। अर्थात् एक मूल प्रकृति दूसरी प्रकृति रूप में परिणत नहीं की जा सकती है, किन्तु उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रम संभव है। इस नियम में भी यह अपवाद है कि आयुकर्म की मनुष्य, देव, नारक, तिर्यच इन चार उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रम नहीं होता तथा मोहनीय कर्म दर्शनमोह तथा चारित्रमोह रूप दो उत्तर प्रकृतियों में भी परस्पर संक्रम नहीं होता।
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