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४०६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
सुख और दुःख दोनों ही कार्य है, अत: दोनों के ही उनके अनुरूप कारण होने चाहिए। जैसे घट का अनुरूप कारण मिट्टी के परमाणु हैं तथा पट के अनुरूप कारण तन्तु हैं, वैसे ही सुख का अनुरूप कारण पुण्य-कर्म तथा दुःख का अनुरूप कारण पाप कर्म है। इस प्रकार दोनों का पार्थक्य है।
जीव तथा पुण्य का संयोग ही सुख का कारण है। उस संयोग का ही स्वपर्याय सुख है। जीव व पाप का संयोग दुःख का कारण है। उस संयोग का ही स्वपर्याय दुःख है। जैसे सुख को शुभ, कल्याण, शिव आदि कह सकते हैं वैसे ही उसके कारण पुण्य के लिए भी यही शब्द प्रयुक्त किए जा सकते हैं। जैसे दुःख को अकल्याण, अशुभ, अशिव आदि संज्ञा दी जाती है, उसके कारण पाप-द्रव्यों को भी इन शब्दों से प्रतिपादित किया जाता है। इसीलिए ही विशेषरूपेण सुख-दुःख के अनुरूप कारण के रूप में पुण्य-पाप माने जाते हैं।२८३ कर्म-पुद्गल ग्रहण की प्रक्रिया . गणधर अचलभ्राता की जिज्ञासा को शान्त करते हुए भगवान कर्म-ग्रहण की प्रक्रिया समझाते हैं
गिण्हइ तज्जोगं चिय रेणुं पुरिसो जहा कयब्भंगो।
एगस्खेत्तोगाढं जीवो सबप्पएसेहि।। २८४
जैसे कोई व्यक्ति शरीर पर तेल लगा कर नग्न शरीर ही खुले स्थान में बैठे तो तेल के परिमाण के अनुसार उसके समस्त शरीर पर मिट्टी चिपक जाती है, वैसे ही राग-द्वेष से स्निग्ध जीव भी कर्म-वर्गणा के विद्यमान कर्म योग्य पुद्गलों को ही पापपुण्य में ग्रहण करता है। कर्म-वर्गणा के पुद्गलों से भी सूक्ष्म परमाणु का अथवा स्थूल औदारिकादि शरीर योग्य पद्गलों का कर्म रूप में ग्रहण नहीं होता। जीव स्वयं आकाश के जितने प्रदेशों में होता है उतने ही प्रदेशों में विद्यमान तद्प पुद्गलों का अपने सर्वप्रदेश में ग्रहण करता है।२८५
जब तक जीव ने कर्मपुद्गल का ग्रहण नहीं किया हो तब तक वह पुद्गल शुभ या अशुभ किसी भी विशेषण से विशिष्ट नहीं होता, अर्थात् वह अविशिष्ट ही होता है। किन्तु जीव उस कर्म पुद्गल का ग्रहण करते ही आहार के समान अध्यवसाय रूप परिणाम तथा आश्रय की विशेषता के कारण उसे शुभ या अशुभ रूप में परिणत कर देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जीव का जैसा शुभ या अशुभ अध्यवसाय रूप परिणाम होता है, उसके आधार पर वह ग्रहण काल में ही कर्म में शुभत्व या अशुभत्व उत्पन्न कर देता है तथा कर्म के आश्रयभूत जीव का भी एक ऐसा स्वभाव विशेष है
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