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पूर्वकृत कर्मवाद केवल दुःख ही होना चाहिए और प्रकृष्ट पुण्य का फल केवल सुख ही होना चाहिए। इस दृष्ट संसार में ऐसा कोई प्राणी नहीं है जो मात्र दुःखी हो और जिसे सुख का कुछ अंश भी प्राप्त न हो। ऐसा भी कोई प्राणी नहीं है जो मात्र सुखी हो और जिसे लेशमात्र भी दुःख प्राप्त न हो। मनुष्य कितना भी सुखी क्यों न हो, फिर भी रोग, जरा, इष्टवियोग आदि से थोड़ा दुःख होता ही है। अतः कोई ऐसी योनि भी होनी चाहिए जहाँ प्रकृष्ट पाप का फल केवल दुःख ही हो तथा प्रकृष्ट पुण्य का फल केवल सुख ही हो, ऐसी योनियाँ क्रमश: नारक व देव हैं । २७९
देहादि की प्राप्ति एवं सुख-दुःखादि में पुण्य-पाप की कारणता
भगवान महावीर और गणधर अचल भ्राता के मध्य चर्चा का विषय 'पुण्य-पाप' था। पुण्य-पाप के संबंध में भगवान महावीर के विचार यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैतं चि देहाईणं किरियाणं पि य सुभाऽसुभत्ताओ। पडिवज्ज पुण्णपावं सहावओ भिन्नजाईयं । । १८०
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तात्पर्य यह है कि दृष्ट कारण रूप माता-पिता के समान होने पर भी एक पुत्र सुन्दर देह वाला होता है तथा दूसरा कुरूप । अतः दृष्ट कारण माता-पिता से भिन्न रूप अदृष्ट कारण कर्म को भी मानना चाहिए। वह कर्म भी दो प्रकार का स्वीकार करना चाहिए पुण्य और पाप । शुभ देहादि कार्य से उसके कारणभूत पुण्य कर्म का तथा अशुभ देहादि कार्य से उसके कारणभूत पाप कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है। शुभ क्रिया रूप कारण से शुभ कर्म पुण्य की निष्पत्ति होती है तथा अशुभ क्रिया रूप कारण से अशुभ कर्म पाप की निष्पत्ति होती है । २१ इससे भी कर्म के पुण्य व पाप ये दो भेद स्वभाव से ही भिन्नजातीय सिद्ध होते हैं। कहा भी है
इह दृष्टहेत्वसंभविकार्यविशेषात् कुलालयत्न इव। हेत्वन्तरमनुमेयं तत् कर्म शुभाशुभं कर्तुः । ।
अर्थात् दृष्ट हेतुओं के होने पर भी कार्य विशेष असंभव हो तो कुम्भकार के यत्न के समान एक अन्य अदृष्ट हेतु का अनुमान करना पड़ता है और वह कर्ता का शुभ अथवा अशुभ कर्म है।
सकती है।
एक अन्य प्रकार से भी कर्म के पुण्य और पाप इन दो भेदों की सिद्धि हो
सुह- दुक्खाणं कारणमणुरूवं कज्जभावओऽवस्सं ।
परमाणवो घड़स्स व कारणमिह पुण्ण-पावाई।।
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