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४०४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
जह वेह कंचणो वलसंजोगोऽणाइसंतइगओ वि।
वोच्छिज्जइ सोवायं तह जोगो जीव-कम्माण।।२७५
सोने तथा मिट्टी का संयोग अनादि सन्ततिगत है। फिर भी अग्नि तापादि से उस संयोग का नाश हो जाता है। इसी प्रकार जीव तथा कर्म का अनादि संयोग भी सम्यक् श्रद्धा आदि रत्नत्रय द्वारा नष्ट हो सकता है।
माण्डिक द्वारा प्रश्न किया गया कि जीव तथा कर्म का संयोग जीव और आकाश के संयोग के समान अनादि अनन्त है अथवा सोने और मिट्टी के समान अनादि सान्त है?२७६
जीव में दोनों प्रकार के संयोग घटित हो सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है। जीव-सामान्य की अपेक्षा से दोनों प्रकार के संबंध घटित होते हैं। जीव विशेष की अपेक्षा से अभव्य जीवों में अनादि अनन्त संयोग है, क्योंकि उनकी मुक्ति नहीं होती है, अत: उनके कर्म-संयोग का नाश कभी भी नहीं होता। भव्य जीवों में अनादि सान्त संयोग है, क्योंकि वे कर्म-संयोग का नाश कर मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता रखते हैं। पुण्य-पाप का स्वरूप
भगवान ने पुण्य-पाप का स्वरूप इस प्रकार कहा है
सोहणवण्णाइगुणं सुभाणुभावं च जं तयं पुण्णं।
विवरीयमओ पावं न बायरं नाइसुहुमं च।।२७८
जो स्वयं शुभ वर्ण, गंध, रस तथा स्पर्श युक्त हो तथा जिसका विपाक भी शुभ हो वह पुण्य है और इससे विपरीत जो अशुभ वर्ण, गंध, रस तथा स्पर्श युक्त हो तथा जिसका विपाक भी अशुभ हो वह पाप है। पुण्य और पाप ये दोनों पुद्गल हैं, किन्तु वे मेरु आदि के समान अतिस्थूल नहीं है और परमाणु के समान अतिसूक्ष्म भी नहीं हैं। पुण्य-पाप कर्मों का फल : स्वर्ग-नरक।
भगवान से गणधर मौर्यपुत्र ने देव और गणधर अकम्पित ने नारकी के संबंध में जिज्ञासा रखी। तब वहाँ भगवान ने पुण्य तथा प्रकृष्ट पाप के प्रतिफल को लक्ष्य कर कर्म सिद्धान्त की व्याख्या की, जो नीचे प्रस्तुत है
इस संसार में दुःखी मनुष्यों व तिर्यचों तथा सुखी मनुष्यों के होने पर भी नारक तथा देव योनि को पृथक् मानने का कारण यह है कि प्रकृष्ट पाप का फल
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