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४१० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
फल संविभाग स्वीकार किया गया है। २९८ बौद्ध केवल शुभ कर्म यानी पुण्य कर्मों के विभाजन को ही स्वीकार करते हैं । २९९ जैनमतानुसार प्राणी के शुभाशुभ कर्मों के प्रतिफल में अन्य कोई भागीदार नहीं बन सकता। जो व्यक्ति शुभाशुभ कर्म करता है, वही उसका फल प्राप्त करता है। इसके संबंध में विभिन्न तर्क इस प्रकार हैं
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१. भगवती सूत्र में गौतम द्वारा पूछे जाने पर कि "क्या जीव स्वयंकृत दुःख को भोगता है? " इसके उत्तर में भगवान महावीर कहते हैं कि जीव स्वकृत दुःख-सुख का भोग करता है, परकृत का नहीं।
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२. उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि संसारी जीव अपने और अन्य बन्धु-बान्धवों के लिए कर्म करता है, किन्तु उस कर्म के फलोदय के समय कोई भी बन्धु बान्धव हिस्सेदार नहीं होता है। व्यक्ति के दुःख को न जाति के लोग बाँट सकते हैं और न मित्र, पुत्र तथा बन्धु । वह स्वयं अकेला ही उन प्राप्त दुःखों को भोगता है, क्योंकि कर्म कर्ता के पीछे ही चलता है। व्यक्ति के किए हुए कर्मों के फलोपभोग में उसके माता, पिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी तथा औरस पुत्र भी समर्थ नहीं है। २०१
३. फल ही व्यक्ति को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। ऐसी स्थिति में कर्म करने वाला व्यक्ति यदि उस कर्म का फलोपभोग न करे तो यह न्यायोचित नहीं होगा। यदि यही सत्य मान लिया जाए कि कर्म कोई करेगा तथा उसका फल कोई भोगेगा तो फिर कर्म करने के प्रति व्यक्ति उदासीन होगा, क्योंकि फल ही एक ऐसा मापदण्ड है जो कर्म करने के लिए व्यक्ति को प्रेरित करता है।
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४. कर्मफल संविभाग को स्वीकार करने पर कर्मों के शुभत्व एवं अशुभत्व के प्रति व्यक्ति का कोई नैतिक उत्तरदायित्व भी नहीं होगा । २०३
५. जैन कर्मसिद्धान्त मानता है कि विविध सुखद - दुःखद अनुभूतियों का मूल कारण (उपादान) तो व्यक्ति के अपने ही पूर्व कर्म है। दूसरा व्यक्ति तो मात्र निमित्त बन सकता है। अर्थात् उपादान कारण की दृष्टि से सुखदुःखादि अनुभव स्वकृत है और निमित्त कारण की दृष्टि से परकृत है। यहां यह प्रश्न उठता है कि यदि हम दूसरों का हिताहित करने में मात्र निमित्त होते हैं, तो फिर हमें पाप-पुण्य का भागी क्यों माना जाता है? जैन विचारकों का कहना है कि हमारे पुण्य-पाप दूसरे के हिताहित की क्रिया पर निर्भर न होकर हमारी मनोवृत्ति पर निर्भर है। हम दूसरों का हिताहित करने पर
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