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पूर्वकृत कर्मवाद ३९९ का कारण कर्म रहेगा ही नहीं। किन्तु जो लोग अदृष्ट शुभ कर्म के निमित्त दानादि क्रियाएँ करते होंगे, उनके लिए ही यह क्लेश-बहुल संसार रह जाएगा। यह बात इस प्रकार फलित होगी- जिसने दानादि शुभ क्रिया अदृष्ट के निमित्त की होगी, उसे कर्म का बंध होगा और उसे भोगने के लिए वह नया जन्म धारण करेगा। वहाँ पुनः कर्म के विपाक का अनुभव करते हुए वह दानादि क्रिया करेगा और नए जन्म की सामग्री तैयार करेगा। इस तरह तुम्हारे मतानुसार ऐसे धार्मिक लोगों के लिए ही संसार होना चाहिए, अधार्मिकों के लिए मानो मोक्ष का निर्माण हुआ है। तुम्हारी मान्यता में ऐसी असंगति उपस्थित होती है। २५१
यदि हिंसादि क्रियाएँ करने वाले सभी मोक्ष ही जाते रहें तो फिर इस संसार में हिंसादि क्रिया करने वाला कोई भी न रहे और हिंसादि क्रिया का फल भोगने वाला भी कोई न रहे। केवल दानादि शभ क्रियाएँ करने वाले और इनका फल भोगने वाले ही संसार में रह जायेंगे। किन्तु संसार में यह बात दिखाई नहीं देती। उसमें उक्त दोनों प्रकार के जीव दृष्टिगोचर होते हैं। ५२
अनिष्ट रूप अदृष्ट के फल की प्राप्ति के लिए इच्छापूर्वक कोई भी जीव क्रिया नहीं करता, फिर भी इस संसार में अनिष्ट फल भोगने वाले अत्यधिक जीव दृष्टिगोचर होते हैं। अत: यह मानना पड़ेगा कि प्रत्येक क्रिया का अदृष्ट फल होता ही है। अर्थात् क्रिया शुभ हो अथवा अशुभ, उसका अदृष्ट रूप फल कर्म अवश्य होता है। इससे विपरीत दृष्ट फल की इच्छा करने पर दृष्ट फल की प्राप्ति अवश्य ही हो, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। ऐसी स्थिति का कारण भी पूर्वबद्ध अदृष्ट कर्म ही होता है। सारांश यह है कि दृष्ट फल धान्य आदि के लिए कृषि आदि कर्म करने पर भी पूर्व कर्म के कारण धान्य आदि दृष्ट फल शायद न भी मिले, किन्तु अदृष्ट कर्म रूप फल तो अवश्य मिलेगा। कारण यह है कि चेतन द्वारा आरम्भ की गई कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती।२५३ कर्म की मूर्तता
कर्म अदृष्ट होने पर भी मूर्त है। इस तथ्य को निरूपित करते हुए भगवान महावीर स्वामी ने गणधर अग्निभूति को बहुत से हेतु दिए, वे इस प्रकार हैं
'मूर्तमेव कर्म, तत्कार्यस्य शरीरादेर्मूर्तत्वात् २५४ अर्थात् कर्म मूर्त है, क्योंकि उसका कार्य शरीरादि मूर्त है। हेतु निम्न हैं१. “यस्य यस्य कार्य मूर्त तस्य तस्य कारणमणि मूर्तम्, यथा घटस्य
परमाणवः, यच्चामूर्त कार्य न तस्य कारणं मूर्त, यथा
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