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जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
ज्ञानस्यात्मेति । ११५५ जिसका कार्य मूर्त होता है उसका कारण भी मूर्त होता है, जैसे परमाणु का कार्य घट मूर्त होने से परमाणु भी मूर्त है, वैसे ही कर्म भी मूर्त है। जो कार्य अमूर्त होता है, उसका कारण भी अमूर्त होता है; जैसे ज्ञान का समवायि कारण ( उपादान कारण) आत्मा ।
इस प्रकार मूर्त कार्य का मूर्त कारण तथा अमूर्त कार्य का अमूर्त कारण होना चाहिए। यहाँ कारण से तात्पर्य समवायि अथवा उपादान कारण है, अन्य नहीं। सुख - दुःख आदि कार्य का समवायि कारण आत्मा है और वह अमूर्त ही है। कर्म तो सुख-दुःखादि का अन्न आदि के समान निमित्त कारण है । २५६ अतः यह हेतु निर्बाध है।
२. कर्म मूर्त है, क्योंकि उससे संबंध होने से सुख आदि का अनुभव होता है; जैसे कि खाद्य आदि का भोजन से सुख का अनुभव होता है। जो अमूर्त हो, उससे संबंध होने पर सुख आदि का अनुभव नहीं होता; जैसे कि आकाश। कर्म का संबंध होने पर आत्मा सुख आदि का अनुभव करती है, अतः कर्म मूर्त है । २५७
कर्म मूर्त है, क्योंकि उसके संबंध से वेदना का अनुभव होता है। जिससे संबंध होने पर वेदना का अनुभव हो वह मूर्त होता है, जैसे कि अग्नि । कर्म का संबंध होने पर वेदना का अनुभव होता है, अतः कर्म मूर्त है । २५८
४. कर्म मूर्त है, क्योंकि आत्मा और उसके ज्ञानादि धर्मों से अतिरिक्त बाह्य पदार्थ से उसमें बलाधान होता है- अर्थात् स्निग्धता आती है। जैसे- घड़े आदि पर तेल आदि बाह्य वस्तु का विलेपन करने से बलाधान होता है, वैसे ही कर्म में भी माला, चंदन, वनिता आदि बाह्य वस्तु के संसर्ग से बलाधान होता है, अत: वह घट के समान मूर्त है । २५९
कर्म मूर्त है, क्योंकि वह आत्मा आदि से भिन्न होने पर परिणामी है, जैसे कि दूध। जैसे आत्मादि से भिन्न रूप दूध परिणामी होने के कारण मूर्त है, वैसे ही कर्म मूर्त है । २६०
कर्म की परिणामिता
कर्म परिणामी है, इस संबंध में सर्वज्ञ महावीर द्वारा कथित पंक्तियाँअद्व मयमसिद्धमेयं परिणामाउ त्ति सो वि कज्जाओ।
.२६१
सिद्धो परिणामो से दहिपरिणामादिव पयस्स ।।
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