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________________ पूर्वकृत कर्मवाद ३९७ चाहिए। अत: कर्मरूप अदृष्ट फल मानने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए आपका हेतु अभिप्रेत अदृष्ट कर्म के स्थान पर दृष्ट फल का साधक होने से विरुद्ध है।२४१ भगवान महावीर- मनःप्रसाद भी एक क्रिया है, अत: सचेतन की अन्य क्रियाओं के समान उसका भी फल होता है। वह फल कर्म है, अतः मेरे इस नियम में कोई दोष नहीं कि सचेतन द्वारा आरम्भ की गई क्रिया फलवती होती है।२४२ अग्निभूति- आपने पहले दानादि क्रिया को कर्म का कारण बताया और अब मनःप्रसाद को कर्म का कारण बताते हैं। अत: आपके कथन में पूर्वापर विरोध है।२४३ भगवान महावीर- तुम सत्य कहते हो, किन्तु मनःप्रसादादि क्रिया ही आनन्तर्य से कर्म का कारण है और मनःप्रसाद आदि क्रिया का दानादि क्रिया ही कारण है। अत: कर्म के कारण के कारण में कारण का उपचार करके दानादि क्रिया को कर्म का कारण रूप माना जाता है। इस तरह पूर्वापर विरोध का परिहार हो जाता है।२४४ अग्निभति- सारांश यह है कि मनुष्य जब मन में प्रसन्न होता है तब ही दानादि करता है। दानादि करने पर उसे बाद में मनःप्रसाद प्राप्त होता है; इसलिए वह पुनः दानादि करता है। इस तरह मनःप्रसाद का फल दानादि है तथा दानादि का फल मन:प्रसाद और उसका भी फल दानादि। आप मनःप्रसाद का अदृष्ट फल कर्म बताते हैं, उसके स्थान में दृष्ट फल दानादि ही मानना चाहिए।२७५ भगवान महावीर- जैसे मृत्पिण्ड से तो घड़ा उत्पन्न होता है किन्तु घड़े से पिण्ड उत्पन्न नहीं होता। वैसे ही सुपात्र को दान देने से मनःप्रसाद उत्पन्न होता है। अतः यह नहीं कहा जा सकता है कि मनःप्रसाद से दान की उत्पत्ति हुई। कारण यह है कि जो जिसका निमित्त होता है, वह उसी का फल नहीं कहा जा सकता, दूर एवं विरुद्ध होने के कारण।२७५ अग्निभूति- संसार में लोग पशु का वध करते हैं, वह किसी अधर्मरूप अदृष्ट कर्म के लिए नहीं किया जाता, अपितु माँस खाने को मिले, इसी उद्देश्य से पशु हिंसा करते हैं। इसी प्रकार सभी क्रियाओं का कोई न कोई दृष्ट फल ही स्वीकार करना चाहिए, अदृष्ट फल को मानना अनावश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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