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________________ ३९६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण बालशरीर पूर्वक होता है उसी प्रकार बालशरीर को देहान्तर (शरीरान्तर) पूर्वक मानना चाहिए। इसमें इन्द्रिय सुख-दुःख, प्राण-अपान, निमेष-उन्मेष जीवन आदि वाला होने को हेतु बनाया गया है। जो जीव इन्द्रियादि से युक्त होता है, वही अन्य शरीर धारण करने पर भी इन्द्रियादि को प्राप्त करता है। जो अशरीरी हैं उनके नियत गर्भ, देश, स्थान की प्राप्ति पूर्वक शरीर का ग्रहण मानना उचित नहीं है क्योंकि उसमें नियामक कारण का अभाव है। स्वभाव इसमें नियामक नहीं हो सकता, क्योंकि उसका इसी ग्रन्थ (विशेषावश्यक भाष्य) में आगे निराकरण किया गया है। इसलिए बाल शरीर से पूर्व शरीरान्तर को स्वीकार करना चाहिए और वह शरीर कर्म है जिसे कार्मण शरीर भी कहा गया है।२२७ ३. चेतन की क्रिया फलवती होने के कारण कर्म-सिद्धि- यह कर्मसाधक तीसरा अनुमान है। यहाँ कर्म-सिद्धि में 'चेतन की क्रिया का फलवती होना' हेतु दिया गया है। इस हेतु के औचित्य में एक लम्बी चर्चा द्वितीय गणधर अग्निभूति और भगवान के मध्य चली। जो यहाँ सार रूप में प्रस्तुत हैभगवान महावीर- "इह या चेतनारब्धक्रिया तस्याः फलं दृष्टम्, यथा कृष्यादिक्रियायाः, चेतनारब्धाश्च दानादिक्रियाः, तस्मात् फलवत्यः यच्च तासां फलं तत् कर्म'२३८ इस संसार में चेतन द्वारा की गई क्रिया का फल होता है, जैसे कृषि क्रिया का। सचेतन पुरुष कृषि क्रिया करता है तो उसे उसका फल धान्यादि प्राप्त होता है, उसी प्रकार दानादि क्रिया का कर्ता भी सचेतन है, अत: उसे उसका कुछ न कुछ फल मिलना चाहिए। जो फल प्राप्त होता है, वह कर्म है। अग्निभूति- पुरुष कृषि करता है, किन्तु अनेक बार उसे धान्यादि फल की प्राप्ति नहीं भी होती; अत: आपका यह हेतु व्यभिचारी है।२२९ भगवान महावीर- तुम्हारा कहना असत् है, क्योंकि चेतन की प्रारम्भ की गई क्रिया का फल अवश्य मिलता है। फिर भी जहाँ क्रिया का फल नहीं मिलता, वहाँ उसका अज्ञान अथवा सामग्री की विकलता या न्यूनता फलाभाव का कारण है। यदि सामग्री का साकल्य अथवा पूर्णता हो तो सचेतन द्वारा आरब्ध क्रिया निष्फल नहीं होती।२४० अग्निभूति- जैसे कृषि आदि क्रिया का दृष्ट फल धान्यादि है, वैसे दानादि क्रिया का भी सबके अनुभव से सिद्ध मनःप्रसाद रूप दृष्ट फल ही मानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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