________________
पूर्वकृत कर्मवाद ३८९ पुण्य-प्रवृत्तियों से शुभ कर्म का आस्रव होता है तथा अशुभ प्रवृत्तियों से पाप कर्म का आस्रव होता है।
ये आस्रव द्वार बन्ध के हेतु कहलाते हैं। समवायांग सूत्र में जिनका नामोच्चारण इस प्रकार हुआ है- "पंच आसवदारा पन्नत्ता तजंहा - मिच्छत्तं, अविरई, पमाया, कसाया, जोगा' - ११९५ अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - ये पाँच आस्रव द्वार हैं।
१. मिथ्यात्व - पदार्थ का यथार्थ श्रद्धान न होकर मिथ्या श्रद्धान होना, मिथ्यात्व है। यह मिथ्यात्व दो तरह से फलित होता है - (१) वस्तु विषयक यथार्थ श्रद्धान का अभाव (२) वस्तु का अयथार्थ श्रद्धान् अर्थात् किसी पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को असत्य मानकर उसके अयथार्थ स्वरूप को ही सत्य मान बैठना । यथा - शरीर आदि जड़ पदार्थों में चैतन्य बुद्धि, अतत्त्व में तत्त्व बुद्धि और अधर्म में धर्म बुद्धि आदि विपरीत भावना । मिथ्यात्व अयथार्थ दृष्टिकोण से पाँच प्रकार का है- १. एकान्त, २. विपरीत, ३. विनय, ४. संशय और ५. अज्ञान ।
२. अविरति - शुभ प्रवृत्तियों से विरत होना ही अविरति है। इसमें जीव पापकार्यों आस्रवद्वारों, इन्द्रिय और मन के विषयों से विरक्त नहीं होता है इसलिए वह अविरत जीव हिंसा, असत्य, स्तेनकर्म, मैथुन, संचय आदि दुर्वृत्तियों में संलग्न रहता है। ऐसे व्यक्ति का त्याग के प्रति अनुत्साह और भोग में उत्साह होता है। यह जीवन की असंयमित और मर्यादित प्रणाली है। इसके पाँच भेद हैं-१, हिंसा, २. असत्य, ३. स्तेयवृत्ति, ४ मैथुन ( कामवासना) ५. परिग्रह |
.
३. प्रमाद- कषाय एवं वासनाओं के तीव्र आवेग के कारण आत्मचेतना का प्रसुप्त होना ही प्रमाद है। प्रमाद विवेक शक्ति को कुण्ठित करता है। प्रमाद के कारण मनुष्य धर्म कार्यों को नहीं कर पाता, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य में असावधानी बरतता है, शुभ परिणति में उत्साह नहीं रखता, मोक्ष-मार्ग की ओर गति नहीं कर पाता है। प्रमाद को हिंसा का मुख्य कारण माना गया है। दूसरे प्राणी का घात हो या न हो, फिर भी प्रमादी व्यक्ति को हिंसा का दोष निश्चित रूप से लगता है। अतः भगवान महावीर ने कहा है- "समयं गोयम मा पमायए” अर्थात् हे गौतम! क्षणमात्र का भी प्रमाद न कर ।
४. कषाय- आत्मा के कलुषित परिणाम कषाय है। कषाय ही जन्म-मरण के मूल कारण हैं। कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चार प्रकार के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org