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________________ ३८८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण इस प्रकार नामकर्म की पिण्ड प्रकृतियों में बन्धन नामकर्म के ५ भेद मानने पर नामकर्म के कुल ६५ भेद होते हैं। पिण्ड प्रकृतियों के ६५ एवं प्रत्येक प्रकृतियों के २८ भेदों को जोड़ने पर नामकर्म के ९३ भेद होते हैं और बन्धनामकर्म के ५ के स्थान पर १५ भेदों को लेने पर नाम कर्म के कुल १०३ भेद होते हैं। ७, गोत्र कर्म- जो आत्मा को उच्च अथवा नीच कुल में व्यवहृत करवाता है, वह गोत्र कर्म है। गोत्र कर्म के भेद-"दुविहे पण्णत्ते। तंजहा उच्चगोए य णीयागोए च'१११ (१) गोत्र कर्म दो प्रकार का होता है- (१) उच्च गोत्र (२) नीच गोत्र। उच्च गोत्र-कर्म के अभ्युदय से जीव उच्च कुल में जन्म लेता है। नीच गोत्र कर्म के कारण जीव नीच कुल में जन्म लेता है। ८. अन्तराय कर्म- भण्डारी की तरह जो दाता और पात्र आदि के बीच में आकर आत्मा के दान आदि में विघ्न डालता है, वह अन्तराय कर्म है। यह कर्म अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुँचाता है। ___अन्तराय कर्म के भेद- "पंचविहे पण्णत्ते। तंजहा-दाणतंराइए जाव वीरियंतराइए'१९२ अन्तराय पाँच प्रकार का है-१. दानान्तराय, २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय, ५. वीर्यान्तराय। जिस कर्म के कारण जीव को दान देने का उत्साह न हो, वह दानान्तराय कर्म है। जिस कर्म के उदय से उसे इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो, वह लाभान्तराय कर्म है। जिस कर्म के उदय से भोग्य वस्तुओं के विद्यमान होने पर भी इनका भोग न हो सके, वह भोगान्तराय कर्म है। जीव जिस कर्म के प्रभाव से उपभोग सामग्री का उपभोग न कर सके, वह उपभोगान्तराय कर्म है। किसी कार्य-विशेष में व्यक्ति का पराक्रम न दिखा पाना या अपनी सामर्थ्य का सदुपयोग कर पाना, वीर्यान्तराय कर्म है। कर्मबन्ध के हेतु जैन दर्शन में बन्धन का हेतु आस्रव है। आस्रव से अभिप्राय हैकर्मवर्गणाओं का आत्मा में आना। आने के द्वार मन-वचन-काया रूपी तीनों योग हैं। जिसे आस्रव के रूप में परिभाषित करते हुए उमास्वाति कहते हैं"कायवाङ्मनःकर्म योगः, स आस्रवः १९२ अर्थात् मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियाँ आम्रव हैं। यह आस्रव पुण्य रूप और पाप रूप दोनों प्रकार का हो सकता है। अतः कहा है- "शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य'९४ अर्थात् जीव की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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