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________________ पूर्वकृत कर्मवाद ३८७ स्थावर दशक की प्रत्येक प्रकृतियाँ- (१) स्थावरनाम (२) सूक्ष्मनाम (३) अपर्याप्तनाम (४) साधारणनाम (५) अस्थिरनाम (६) अशुभनाम (७) दुर्भगनाम (८) दुःस्वरनाम (९) अनादेयनाम (१०) अयश:कीर्तिनाम। जिस कर्म के उदय से जीव बडे-बडे बलवानों की दृष्टि में भी अजेय समझा जाता है, उसे पराघातनामकर्म कहते हैं। श्वास लेने और छोड़ने की क्रिया को उच्छ्वासनामकर्म कहते हैं। आतपनामकर्म से सूर्यमण्डल के बादर पृथिवीकायिक जीवों का शरीर उष्ण न होकर उनका प्रकाश उष्ण होता है। उद्योतनामकर्म से जीव का शरीर शीत प्रकाश फैलाता है। जिसके कारण जीव का शरीर न हल्का होता है और न भारी वह अगुरुलघुनामकर्म कहलाता है। केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर ही तीर्थकरनामकर्म का उदय होता है। अंग-उपांग का व्यवस्थित स्वरूप निर्माणनामकर्म से होता है। जिसके कारण शरीर के विविध अवयव यथास्थान व्यवस्थित नहीं होते, वह उपाघातनामकर्म है। जिस कर्म के प्रभाव से त्रसकायं की प्राप्ति हो, जसनामकर्म कहते हैं । जिस कर्म के उदय से जीव को बादर काय की प्राप्ति हो, उसे बादरनामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव अपनी-अपनी पर्याप्तियों से युक्त होते हैं, वह पर्याप्तनामकर्म है। जिसके उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता है वह प्रत्येकनामकर्म है। स्थिरनामकर्म के उदय से दाँत हड्डी ग्रीवा आदि अपने सुनिश्चित स्थान पर होते हैं। शुभनामकर्म शरीर के अवयवों की शुभता को सूचित करता है। सुभगनामकर्म से अकारण ही जीव लोकप्रिय बनता है। सुस्वरनामकर्म के उदय से जीव की आवाज मधुर एवं सुस्वर होती है। आदेयनामकर्म के उदय से जीव का वचन सर्वमान्य होता है। यश-कीर्तिनामकर्म से जीव का संसार में यश फैलता है। स्थावरनामकर्म के उदय से जीव में स्थिर होने की प्रवृत्ति विकसित होती है। सक्षमनामकर्म से जीव को शरीर हल्का या भारी न मिले। अपर्याप्तनामकर्म से जीव की पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती। साधारणनामकर्म के उदय से अनन्त जीव एक कर्म के स्वामी बनते हैं। अस्थिरनामकर्म के उदय से शरीर के विविध अवयव अस्थिर होते हैं। अशुभनामकर्म नाभि के नीचे के विविध अवयवों की अशुभता को सूचित करते हैं। दुर्भगनामकर्म से उपकार करके भी अप्रिय बनता है। दःस्वरनामकर्म से कर्कश एवं अप्रिय वचन का उच्चारण होता है। जिस कर्म के उदय से युक्तियुक्त वचन भी अग्राह्य समझे जाए, वह अनादेय नाम कर्म है। अयश:कीर्तिनामकर्म के उदय से जीव लोक में अपयश एवं अपकीर्ति प्राप्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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