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३८६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण १२. स्पर्शनाम कर्म- (१) गुरु (२) लघु (३) मृदु (४) खर (५) शीत
(६) उष्ण (७) स्निग्ध (८) रुक्षा १३. आनुपूर्वीनाम कर्म- (१) देवानुपूर्वी (२) मनुष्यानुपूर्वी (३) तिर्यंचानुपूर्वी
(४) नरकानुपूर्वी। १४. विहायोगति- (१) शुभ विहायोगति (२) अशुभ विहायोगति।
गतिनामकर्म के प्रभाव से जीव मनुष्यादि गतियों में जाता है। जातिनामकर्म के निमित्त से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति प्राप्त करता है। शरीरनामकर्म के कारण जीव को औदारिक, वैक्रिय, आदि शरीरों की प्राप्ति होती है। अंगोपांगनामकर्म के उदय से जीव के विविध अंगों और उपांगों को एक निश्चित स्वरूप मिलता है। बन्धननामकर्म द्वारा ग्रहण किये हुए औदारिक आदि शरीर पुद्गलों के साथ गृह्यमाण औदारिक आदि पुद्गलों का आपस में सम्बन्ध स्थापित होता है। इसके १५ भेद विभिन्न शरीरों के पारस्परिक सम्बन्ध के सूचक हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर योग्य पुद्गल प्रथम ग्रहण किये हुए शरीर पुद्गलों पर व्यवस्थित रूप से स्थापित किये जाते हैं, उसे संघातनामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के प्रभाव से शरीर के हड्डियों की सन्धियाँ दृढ होती है, उसे संहनननामकर्म कहते है। संस्थाननामकर्म के कारण शुभता एवं अशुभता की दृष्टि से शरीर के पृथक्-पृथक् आकार निर्मित होते हैं। वर्णनामकर्म शरीर के विविध वर्गों को निर्धारित करता है। जिस कर्म के उदय से शरीर में शुभ या अशुभ गन्ध हो, उसे गन्धनामकर्म कहते हैं। रसनामकर्म के उदय से शरीर में तिक्त, मधुर आदि शुभ एवं अशुभ रसों की निष्पत्ति होती है। जिस कर्म के प्रभाव से शरीर का स्पर्श कर्कश, मृदु, स्निग्ध, रुक्ष आदि रूप हो, उसे स्पर्शनामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव विग्रहगति में अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुँचता है, उसे आनुपूर्वीनामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव की चाल शुभ या अशुभ होती है, उसे विहायोगतिनामकर्म कहते हैं। प्रत्येक प्रकृतियाँ
(१) पराघात (२) उच्छ्वास (३) आतप (४) उद्योत (५) अगुरुलघु (६) तीर्थकर (७) निर्माण (८) उपघात।
त्रसदशक की प्रत्येक प्रकृतियाँ - (१) त्रसनाम (२) बादरनाम (३) पर्याप्तनाम (४) प्रत्येकनाम (५) स्थिरनाम (६) शुभनाम (७) सुभगनाम (८)सुस्वरनाम (९) आदेयनाम (१०) यश:कीर्तिनाम।
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