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________________ ३९० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण कहे गए हैं। ये जीव की शुभ भावनाओं को कृश करते हैं। क्रोध कषाय के कारण आत्मा स्वभाव से वंचित होकर आक्रोश से भर जाता है। मानकषाय के प्रभाव से जीव में आत्म-प्रदर्शन की मिथ्या भावना जागृत होती है। माया के कारण जीव के आचार एवं विचारों में एकरूपता न रहकर उसमें एक तरह की कपट-प्रवृत्ति विकसित होती है। लोभ कषाय के कारण ममत्व की भावना जागृत होती है। यह कषाय संग्रह-वृत्ति को जन्म देती है। अतः कषाय मन के आन्तरिक मनोविकार है। ५. योग- योग का अर्थ है प्रवृत्ति। यह शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की होती है। शुभ योग की प्रवृत्ति से पुण्य का और अशुभ योग की प्रवृत्ति से पाप का आस्रव होता है। इसके ३ भेद हैं-मन, वचन और काया। मन, वचन और काया से होने वाली आत्मा की क्रिया कर्म परमाणुओं के साथ आत्मा का योग अर्थात् सम्बन्ध कराती है, एतदर्थ इसे योग कहा गया है। बन्धन के उक्त पाँच कारणों में कषाय और योग- ये दो महत्त्वपूर्ण हैं। क्योंकि मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद के मूल तो कषाय ही हैं। कर्मबन्ध की विस्तृत व्याख्या के लिए मिथ्यात्वादि पाँचों को कर्मबन्ध का कारण कहा गया है। परन्तु कषाय एवं योग ही कर्मबन्ध के मूल कारण हैं, जिनमें बन्धनकारक जीव के सम्पूर्ण मनोविकारों का समावेश है। बन्धन न तो शरीर में है, न इन्द्रियों में है और न ही बाहर किसी अन्य वस्तु में, बल्कि इनके निमित्त से मन में राग एवं द्वेष जो भाव उत्पन्न होते हैं, उन भावों के कारण ही बन्धन होता है। अत: कहा है- "रागो य दोसो वि य कम्मबीयं१६ अर्थात् राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। इसके अतिरिक्त जैन साहित्य में अष्टविध कर्म के बन्ध के पृथक् कारणों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। कर्मबन्ध के विशिष्ट कारण तत्त्वार्थ सूत्र और कर्मग्रन्थ में ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों के बन्ध के कारणों का सूत्राबद्ध वर्णन मिलता है१-२. ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय-कर्मबन्ध के कारण "तत्प्रदोषनिहनवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो:११९७ अर्थात् प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन तथा उपघात ये ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म के बन्ध हेतु हैं। (१) ज्ञानी और सम्यक् दृष्टि की निन्दा करना अथवा उसके प्रति अकृतज्ञ होना (२) ज्ञानी का उपकार स्वीकार नहीं करना तथा मिथ्या मान्यताओं का प्रतिपादन करना (३) ज्ञान प्राप्ति तथा शुद्ध दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक बनना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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